tag:blogger.com,1999:blog-13537328915803748932024-03-13T20:15:58.415+05:30लेख संग्रहगीता प्रसार अभियान Unknownnoreply@blogger.comBlogger30125tag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-53714843958266358912016-09-06T14:15:00.002+05:302016-09-06T14:15:56.526+05:30ऋषि पंचमी पर ऋषियों का पूजन अवश्य करें <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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ऋषि पंचमी पर ऋषियों का पूजन अवश्य करना चाहिए। समाज में जो भी उत्तम प्रचलन, प्रथा-परम्पराएं हैं, उनके प्रेरणा स्रोत ऋषिगण ही हैं। इन्होंने विभिन्न विषयों पर महत्त्वपूर्ण शोध किए हैं। यथा-व्यासजी ने गहन वेदज्ञान को सुबोध्य पुराण ज्ञान के रूप में रूपान्तरित कर ज्ञानार्जन का मार्ग प्रशस्त किया। चरक, सुश्रुतादि आयुर्विज्ञान पर अनुसन्धान किए। जमदग्रि-याज्ञबल्क्य यज्ञ विज्ञान पर शोध प्रयोग किये। वशिष्ठ ने ब्रह्मविद्या व राजनीति विज्ञान तथा विश्वामित्र ने गायत्री महाविद्या का रहस्योद्घाटन किया।</div>
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नारद जी ने भक्ति साधना के अनमोल सूत्र दिए। पर्शुराम ने ऊंच-नीचादि जातिगत भेद-वैषम्य का निराकरण किया। भगीरथ ने जल विज्ञान की महत्ता को समझकर धरती पर गंगावतरण के पुनीत पुरुषार्थ किया। पतंजलि ने योग विज्ञान की विविध साधना मार्ग प्रस्तुत किए। अन्य ऋषियों ने भी व्यापक समाज हित के कार्य किए हैं जिनका मानव जाति सदा ऋणी रहेगी।</div>
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ये सभी ऋषि भारतीय संस्कृति के उन्नायक, युग सृजेता, मुक्तिमार्ग का पथ प्रदर्शक, राष्ट्रधर्म के संरक्षक, व्यष्टि-समष्टि की समस्त गति, प्रगति और सद्गति के उद्गाता हैं। संसार के तमाम रहस्यमय विद्याओं की खोज, उन पर प्रयोग, समाज में सत्पात्रों को उनकी शिक्षा दीक्षा, उनकी सहायता से अभिनव समाज निर्माण जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य सब इन महान ऋषियों की ही देन हैं। इस दिन ऋषियों के पूजन से मनुष्य ऋषि- ऋण से तो मुक्त होता ही है साथ ही उनका कृपा पात्र भी बनता है । </div>
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गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-42595196383409614092016-08-31T00:26:00.001+05:302016-08-31T00:26:25.710+05:30 भीष्म पितामह द्वारा उल्लेखित कलियुग के दस महापाप<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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मानव जाने अनजाने में अनेक पाप करता है, कलयुग का ऐसा प्रभाव है की मनुष्य द्वारा कई पाप होने के बावजूद उसे मालूम ही नही होता की उसने कौन सा पाप किया है। भीष्म ने कहा था ये दस महापाप कलियुग में नित्य बढते जायेंगे कोई भी इनसे अछूता न रह पायेगा। महाभारत के अनुशाषण पर्व में पितामह भीष्म ने युद्धिष्ठर को चेताया था की दस पापों से हमेशा दूर रहना चाहिये, शरीर व इंद्रियों द्वारा होने वाले ये दस महापाप शरीर द्वारा तीन, वाणी द्वारा चार तथा मन द्वारा तीन प्रकार के होते हैं। जिनसे हमे नित्य बचना चाहिये।</div>
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शरीर द्वारा होने वाले पाप- शरीर द्वारा होने वाला प्रथम पाप हिंसा करना है। किसी भी प्रकार से जीवों के प्रति की गई हिंसा अथवा दूसरे को क्षति पहुंचाना शरीर द्वारा किया गया महापाप है। दूसरा पाप चोरी करना है, लालच में आकर या किसी अन्य स्थिति में की गई किसी भी प्रकार की चोरी पाप फल दायी होती है। व्याभिचार तिसरे प्रकार का महापाप माना गया है। जो स्त्रि-पुरुष भ्रष्ट होकर अनैतिक सम्बंध व भोग लिप्सा में लिप्त रहते हैं उन्हे नर्क में बडी यातनायें सहन करनी पडती हैं। यह मार्ग अत्यधिक निंदित व कुल के पुण्यों का भंजन करने वाला कहा गया है। इन पापों से मनुष्य को सावधान रहना चाहिये क्योंकी एक बार इन में फंस कर व्यक्ति का निकल पाना अत्यधिक जटिल है।</div>
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मुख व वाणी द्वारा होने वाले चार प्रकार के पाप- हमारे मुहं को हमारी सोच व हृदय का दरवाजा कहा गया है। दरवाजा खुलने के बाद ही ज्ञात हो पाता है की भवन के अंदर मोति है अथवा कूडा। हमारी अनियंत्रित वाणी किसी न किसी प्रकार के पाप में व्यक्ति को धकेलती रहती है। वाणी द्वारा होने वाले विभिन्न प्रकार के पाप है अनर्गल बात करना अर्थात व्यर्थ बकवास करना। व्यर्थ बकवास करने वाले को यही पता नही चलता की वह क्या कह रहा है और उसका प्रभाव किया होगा। दूसरा पाप दूसरों का अपमान करना है महाभारत में कहा गया है की आदरणीय लोगों का अपमान करना मृत्यु के समान होता है। अत: कभी भी किसी का अपमान नही करना चाहिये। तीसरे प्रकार का पाप झूठ बोलना है। झूठ बोलने से हमारे मनोविकार भी प्रभावित होते है झूठ बोलने के कारण ही हमारी आत्मा मलिन हो जाती है। झूठ बोलने के अनेक दोष हैं अत: इस महापाप से अपने को सदैव दूर रखने का प्रयास करना चाहिये। वाणी द्वारा होने वाला चौथे प्रकार का पाप दूसरों की चुगली करना हैं।</div>
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मन से होने वाले पाप- अनुशाषण पर्व के अनुसार मन से होने वाले तीन प्रकार के मुख्य पाप माने गये है। मानसिक रूप से दूसरों के धन के प्रति सोचना या उसे अपनाने के लिये किया गया चिंतन पाप की श्रेणी में आता है। दूसरों को अहित पहुंचाने के उद्देश्य से किये गये प्रयास भी मानसिक पाप की श्रेणी में आता है। तीसरे प्रकार का मानसिक पाप वासना है मन में वासना के प्रति अनेक प्रकार के कुत्सित विचार व्यक्ति के पतन का बडा कारण बनते हैं।</div>
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गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-29816165601181496962016-08-30T23:21:00.003+05:302016-08-30T23:42:33.919+05:30क्यों पहना जाता है जनेऊ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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भारतीय संस्कृति में जनेऊ का बड़ा महत्व है । आइये जानने का प्रयास करें कि जनेऊ क्यों पहनते हैं</div>
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ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्।</div>
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आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥</div>
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जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। जनेऊ धारण करने की परम्परा बहुत ही प्राचीन है। वेदों में जनेऊ धारण करने की हिदायत दी गई है। इसे उपनयन संस्कार कहते हैं।</div>
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‘उपनयन’ का अर्थ है, ‘पास या सन्निकट ले जाना।’</div>
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किसके पास? ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना।</div>
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हिन्दू धर्म के 16 संस्कारों में से एक ‘उपनयन संस्कार’ के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है जिसे ‘यज्ञोपवीत संस्कार’ भी कहा जाता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं।</div>
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यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। एक बार जनेऊ धारण करने के बाद मनुष्य इसे उतार नहीं सकता।</div>
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मैला होने पर उतारने के बाद तुरंत ही दूसरा जनेऊ धारण करना पड़ता है। आओ जानते हैं जनेऊ के धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व के साथ ही उसके स्वास्थ लाभ के बारे में।</div>
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हर हिन्दू का कर्तव्य : हिन्दू धर्म में प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और उसके नियमों का पालन करना। हर हिन्दू जनेऊ पहन सकता है बशर्ते कि वह उसके नियमों का पालन करे।</div>
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ब्राह्मण ही नहीं समाज का हर वर्ग जनेऊ धारण कर सकता है। जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। द्विज का अर्थ होता है दूसरा जन्म।</div>
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ब्रह्मचारी और विवाहित : वह लड़की जिसे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना हो, वह जनेऊ धारण कर सकती है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं।</div>
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जनेऊ क्या है : आपने देखा होगा कि बहुत से लोग बाएं कांधे से दाएं बाजू की ओर एक कच्चा धागा लपेटे रहते हैं। इस धागे को जनेऊ कहते हैं। जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है।</div>
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जनेऊ को संस्कृत भाषा में ‘यज्ञोपवीत’ कहा जाता है। यह सूत से बना पवित्र धागा होता है, जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। अर्थात इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे।</div>
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तीन सूत्र क्यों : जनेऊ में मुख्यरूप से तीन धागे होते हैं। प्रथम यह तीन सूत्र त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। द्वितीय यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं और तृतीय यह सत्व, रज और तम का प्रतीक है।</div>
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चतुर्थ यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों का प्रतीक है। पंचम यह तीन आश्रमों का प्रतीक है। संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।</div>
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नौ तार : यज्ञोपवीत के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। इस तरह कुल तारों की संख्या नौ होती है। एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने।</div>
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पांच गांठ : यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक भी है।</div>
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जनेऊ की लंबाई : यज्ञोपवीत की लंबाई 96 अंगुल होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए।</div>
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चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर कुल 32 विद्याएं होती है। 64 कलाओं में जैसे- वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि।</div>
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जनेऊ धारण वस्त्र : जनेऊ धारण करते वक्त बालक के हाथ में एक दंड होता है। वह बगैर सिला एक ही वस्त्र पहनता है। गले में पीले रंग का दुपट्टा होता है। मुंडन करके उसके शिखा रखी जाती है। पैर में खड़ाऊ होती है। मेखला और कोपीन पहनी जाती है।</div>
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मेखला, कोपीन, दंड : मेखला और कोपीन संयुक्त रूप से दी जाती है। कमर में बांधने योग्य नाड़े जैसे सूत्र को मेखला कहते हैं। मेखला को मुंज और करधनी भी कहते हैं। कपड़े की सिली हुई सूत की डोरी, कलावे के लम्बे टुकड़े से मेखला बनती है।</div>
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कोपीन लगभग 4 इंच चौड़ी डेढ़ फुट लम्बी लंगोटी होती है। इसे मेखला के साथ टांक कर भी रखा जा सकता है। दंड के लिए लाठी या ब्रह्म दंड जैसा रोल भी रखा जा सकता है। यज्ञोपवीत को पीले रंग में रंगकर रखा जाता है।</div>
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जनेऊ धारण : बगैर सिले वस्त्र पहनकर, हाथ में एक दंड लेकर, कोपीन और पीला दुपट्टा पहनकर विधि-विधान से जनेऊ धारण की जाती है। जनेऊ धारण करने के लिए एक यज्ञ होता है, जिसमें जनेऊ धारण करने वाला लड़का अपने संपूर्ण परिवार के साथ भाग लेता है।</div>
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यज्ञ द्वारा संस्कार किए गए विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है।</div>
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गायत्री मंत्र : यज्ञोपवीत गायत्री मंत्र से शुरू होता है। गायत्री- उपवीत का सम्मिलन ही द्विजत्व है। यज्ञोपवीत में तीन तार हैं, गायत्री में तीन चरण हैं।</div>
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‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ प्रथम चरण,</div>
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‘भर्गोदेवस्य धीमहि’ द्वितीय चरण,</div>
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‘धियो यो न: प्रचोदयात्’ तृतीय चरण है।</div>
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गायत्री महामंत्र की प्रतिमा- यज्ञोपवीत, जिसमें 9 शब्द, तीन चरण, सहित तीन व्याहृतियां समाहित हैं।</div>
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यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है-</div>
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यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।</div>
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आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।</div>
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<br /></div>
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ऐसे करते हैं संस्कार : यज्ञोपवित संस्कार प्रारम्भ करने के पूर्व बालक का मुंडन करवाया जाता है। उपनयन संस्कार के मुहूर्त के दिन लड़के को स्नान करवाकर उसके सिर और शरीर पर चंदन केसर का लेप करते हैं और जनेऊ पहनाकर ब्रह्मचारी बनाते हैं। फिर होम करते हैं। फिर विधिपूर्वक गणेशादि देवताओं का पूजन, यज्ञवेदी एवं बालक को अधोवस्त्र के साथ माला पहनाकर बैठाया जाता है। फिर दस बार गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित करके देवताओं के आह्वान के साथ उससे शास्त्र शिक्षा और व्रतों के पालन का वचन लिया जाता है।</div>
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फिर उसकी उम्र के बच्चों के साथ बैठाकर चूरमा खिलाते हैं फिर स्नान कराकर उस वक्त गुरु, पिता या बड़ा भाई गायत्री मंत्र सुनाकर कहता है कि आज से तू अब ब्राह्मण हुआ अर्थात ब्रह्म (सिर्फ ईश्वर को मानने वाला) को माने वाला हुआ।</div>
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इसके बाद मृगचर्म ओढ़कर मुंज (मेखला) का कंदोरा बांधते हैं और एक दंड हाथ में दे देते हैं। तत्पश्चात् वह बालक उपस्थित लोगों से भीक्षा मांगता है।</div>
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<br /></div>
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शाम को खाना खाने के पश्चात् दंड को साथ कंधे पर रखकर घर से भागता है और कहता है कि मैं पढ़ने के लिए काशी जाता हूं। बाद में कुछ लोग शादी का लालच देकर पकड़ लाते हैं। तत्पश्चात वह लड़का ब्राह्मण मान लिया जाता है।</div>
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कब पहने जनेऊ : जिस दिन गर्भ धारण किया हो उसके आठवें वर्ष में बालक का उपनयन संस्कार किया जाता है। जनेऊ पहनने के बाद ही विद्यारंभ होता है, लेकिन आजकल गुरु परंपरा के समाप्त होने के बाद अधिकतर लोग जनेऊ नहीं पहनते हैं तो उनको विवाह के पूर्व जनेऊ पहनाई जाती है।</div>
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लेकिन वह सिर्फ रस्म अदायिगी से ज्यादा कुछ नहीं,</div>
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क्योंकि वे जनेऊ का महत्व नहीं समझते हैं।</div>
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यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत।।</div>
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अर्थात : अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके ही इसे उतारें।</div>
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* किसी भी धार्मिक कार्य, पूजा-पाठ, यज्ञ आदि करने के पूर्व जनेऊ धारण करना जरूरी है।</div>
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* विवाह तब तक नहीं होता जब तक की जनेऊ धारण नहीं किया जाता है।</div>
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* जब भी मूत्र या शौच विसर्जन करते वक्त जनेऊ धारण किया जाता है।</div>
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<br /></div>
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जनेऊ संस्कार का समय : माघ से लेकर छ: मास उपनयन के लिए उपयुक्त हैं। प्रथम, चौथी, सातवीं, आठवीं, नवीं, तेरहवीं, चौदहवीं, पूर्णमासी एवं अमावस की तिथियां बहुधा छोड़ दी जाती हैं। सप्ताह में बुध, बृहस्पति एवं शुक्र सर्वोत्तम दिन हैं, रविवार मध्यम तथा सोमवार बहुत कम योग्य है। किन्तु मंगल एवं शनिवार निषिद्ध माने जाते हैं।</div>
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<br /></div>
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मुहूर्त : नक्षत्रों में हस्त, चित्रा, स्वाति, पुष्य, घनिष्ठा, अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, श्रवण एवं रवती अच्छे माने जाते हैं। एक नियम यह है कि भरणी, कृत्तिका, मघा, विशाखा, ज्येष्ठा, शततारका को छोड़कर सभी अन्य नक्षत्र सबके लिए अच्छे हैं।</div>
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<br /></div>
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पुनश्च: : पूर्वाषाढ, अश्विनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, ज्येष्ठा, पूर्वाफाल्गुनी, मृगशिरा, पुष्य, रेवती और तीनों उत्तरा नक्षत्र द्वितीया, तृतीया, पंचमी, दसमी, एकादसी, तथा द्वादसी तिथियां, रवि, शुक्र, गुरु और सोमवार दिन, शुक्ल पक्ष, सिंह, धनु, वृष, कन्या और मिथुन राशियां उत्तरायण में सूर्य के समय में उपनयन यानी यज्ञोपवीत यानी जनेऊ संस्कार शुभ होता है।</div>
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<br /></div>
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जनेऊ के नियम :</div>
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1. यज्ञोपवीत को मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका स्थूल भाव यह है कि यज्ञोपवीत कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो। अपने व्रतशीलता के संकल्प का ध्यान इसी बहाने बार-बार किया जाए।</div>
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<br /></div>
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2. यज्ञोपवीत का कोई तार टूट जाए या 6 माह से अधिक समय हो जाए, तो बदल देना चाहिए। खंडित प्रतिमा शरीर पर नहीं रखते। धागे कच्चे और गंदे होने लगें, तो पहले ही बदल देना उचित है।</div>
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<br /></div>
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3. जन्म-मरण के सूतक के बाद इसे बदल देने की परम्परा है। जिनके गोद में छोटे बच्चे नहीं हैं, वे महिलाएं भी यज्ञोपवीत संभाल सकती हैं; किन्तु उन्हें हर मास मासिक शौच के बाद उसे बदल देना पड़ता है।</div>
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<br /></div>
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4.यज्ञोपवीत शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता। साफ करने के लिए उसे कण्ठ में पहने रहकर ही घुमाकर धो लेते हैं। भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित की एक माला जप करने या बदल लेने का नियम है।</div>
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<br /></div>
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5.देव प्रतिमा की मर्यादा बनाये रखने के लिए उसमें चाबी के गुच्छे आदि न बांधें। इसके लिए भिन्न व्यवस्था रखें। बालक जब इन नियमों के पालन करने योग्य हो जाएं, तभी उनका यज्ञोपवीत करना चाहिए।</div>
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जनेऊ पहनने के ये 7 लाभ हैं</div>
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भारतीय संस्कृति में यज्ञोपवीत यानी जनेऊ धारण करने की परंपरा वैदिक काल से ही चली आ रही है. 'उपनयन' की गिनती सोलह संस्कारों में होती है. पर आज के दौर में लोग जनेऊ पहनने से बचना चाहते हैं. नई पीढ़ी के मन में सवाल उठता है कि आखिर इसे पहनने से फायदा क्या होगा?</div>
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जनेऊ केवल धार्मिक नजरिए से ही नहीं, बल्कि सेहत के लिहाज से भी बेहद फायदेमंद है. जनेऊ पहनने के फायदों की यहां संक्षेप में चर्चा की गई है.</div>
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1. जीवाणुओं और कीटाणुओं से बचाव</div>
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जो लोग जनेऊ पहनते हैं और इससे जुड़े नियमों का पालन करते हैं, वे मल-मूत्र त्याग करते वक्त अपना मुंह बंद रखते हैं. इसकी आदत पड़ जाने के बाद लोग बड़ी आसानी से गंदे स्थानों पर पाए जाने वाले जीवाणुओं और कीटाणुओं के प्रकोप से बच जाते हैं.</div>
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<br /></div>
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2. तन निर्मल, मन निर्मल</div>
<div style="text-align: justify;">
जनेऊ को कान के ऊपर कसकर लपेटने का नियम है. ऐसा करने से कान के पास से गुजरने वाली उन नसों पर भी दबाव पड़ता है, जिनका संबंध सीधे आंतों से है. इन नसों पर दबाव पड़ने से कब्ज की शिकायत नहीं होती है. पेट साफ होने पर शरीर और मन, दोनों ही सेहतमंद रहते हैं.</div>
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3. बल व तेज में बढ़ोतरी</div>
<div style="text-align: justify;">
दाएं कान के पास से वे नसें भी गुजरती हैं, जिसका संबंध अंडकोष और गुप्तेंद्रियों से होता है. मूत्र त्याग के वक्त दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से वे नसें दब जाती हैं, जिनसे वीर्य निकलता है. ऐसे में जाने-अनजाने शुक्राणुओं की रक्षा होती है. इससे इंसान के बल और तेज में वृद्धि होती है.</div>
<div style="text-align: justify;">
4. हृदय रोग व ब्लडप्रेशर से बचाव</div>
<div style="text-align: justify;">
रिसर्च में मेडिकल साइंस ने भी पाया है कि जनेऊ पहनने वालों को हृदय रोग और ब्लडप्रेशर की आशंका अन्य लोगों के मुकाबले कम होती है. जनेऊ शरीर में खून के प्रवाह को भी कंट्रोल करने में मददगार होता है.</div>
<div style="text-align: justify;">
5. स्मरण शक्ति में इजाफा</div>
<div style="text-align: justify;">
कान पर हर रोज जनेऊ रखने और कसने से स्मरण शक्ति में भी इजाफा होता है. कान पर दबाव पड़ने से दिमाग की वे नसें एक्टिव हो जाती हैं, जिनका संबंध स्मरण शक्ति से होता है. दरअसल, गलतियां करने पर बच्चों के कान ऐंठने के पीछे भी मूल मकसद यही होता था.</div>
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6. मानसिक बल में बढ़ोतरी</div>
<div style="text-align: justify;">
यज्ञोपवीत की वजह से मानसिक बल भी मिलता है. यह लोगों को हमेशा बुरे कामों से बचने की याद दिलाता रहता है. साथ ही ऐसी मान्यता है कि जनेऊ पहनने वालों के पास बुरी आत्माएं नहीं फटकती हैं. इसमें सच्चाई चाहे जो भी हो, पर केवल मन में इसका गहरा विश्वास होने भर से फायदा तो होता ही है.</div>
<div style="text-align: justify;">
7. आध्यात्मिक ऊर्जा की प्राप्ति</div>
<div style="text-align: justify;">
जनेऊ धारण करने से आध्यात्मिक ऊर्जा भी मिलती है. ऐसी मान्यता है कि यज्ञोपवीत में प्रभु का वास होता है. यह हमें कर्तव्य की भी याद दिलाता है.</div>
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-87278122801487151752016-06-14T14:03:00.003+05:302016-06-14T14:03:59.650+05:30गायत्री प्रणवान्विता <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
तत्त्वदर्शी ऋषियों ने कहा है दुर्लभा सर्वमंत्रेषु गायत्री प्रणवान्विता अर्थात्- प्रणव (ॐ) से युक्त गायत्री सभी मन्त्रों में दुर्लभ है। इसीलिए त्रिपदा गायत्री को उसके शीर्ष पद के साथ ही जपने का विधान इस विज्ञान विशेषज्ञों ने बनाया है। परब्रह्म निराकार, अव्यक्त है। अपनी जिस अलौकिक शक्ति से वह स्वयं को विराट रूप में व्यक्त करता है, वह गायत्री है। इसी शक्ति के सहारे जीव मायाग्रस्त होकर विचरण करता है और इसी के सहारे माया से मुक्त होकर पुनः परमात्मा तक पहुँचता है। गायत्री मंत्र के शीर्ष पद और तीनों चरणों के निर्देशों का अनुगमन- अनुपालन करता हुआ साधक सुखी, समुन्नत जीवन जीता हुआ इष्ट लक्ष्य तक पहुँच सकता है। </div>
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<br /></div>
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शीर्ष :- गायत्री मंत्र का शीर्ष है ॐ भूर्भुवः स्व। ॐ को अक्षरब्रह्म, परब्रह्म- परमात्मा का पर्याय कहा गया है। सूत्र है, तत्सवाचकः प्रणवः अर्थात् ॐ परमात्मा का बोधक है। सृष्टि विकास के क्रम में कहा गया है कि ओंकार (ॐ) के रूप में ब्रह्म प्रकट हुआ, उससे तीन व्याहृतियाँ (भूः भुवः स्वः) प्रकट हुईं। </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
शीर्ष पद का अर्थ हुआ कि वह ॐ रूप परमात्मा तीनों लोकों (भूः, भुवः, स्वः) में व्याप्त है। वह प्राणस्वरूप, दुःखनाशक एवं सुखस्वरूप है। </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तीन व्याहृतियाँ ..... क्रमशः गायत्री मंत्र के तीन चरण प्रकट हुए। युगऋषि ने आत्मिक प्रगति के लिए जो तीन क्रम अपनाने को कहे हैं (ईश उपासना, जीवन साधना और लोक आराधना) उनका अनुशासन भी क्रमशः गायत्री के तीन चरणों से प्राप्त होता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
प्रथम चरण- तत्सवितुर्वरेण्यं :- तत् वह परमात्मा रूपी पुरुष के भेद से परे है; वह सविता (सबका उत्पादक) है, इसलिए सभी के लिए वरण करने योग्य है। माँ के गर्भ में शिशु पलता है तो माँ की प्राणऊर्जा की विभिन्न धाराओं से ही उसके सारे अंग- अवयवों का पोषण और विकास होता है। यही नहीं, माँ के भावों और विचारों के अनुरूप ही बालक के भाव- विचार बनते हैं। पैदा हो जाने पर भी माँ का दूध ही उसके लिए सबसे उपयुक्त आहार सिद्ध होता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
दूसरा चरण- भर्गो देवस्य धीमहि :- उस देव (परब्रह्म- परमात्मा) का भर्ग (दिव्य तेज) जो हमें सहज प्राप्त है, उसे हमें अपने अंदर धारण करना है, उसे आत्मसात करना है। माँ के गर्भ में बालक को जो ऊर्जा माँ से प्राप्त होती है, उसे वह अपने प्रत्येक कोश में, कण- कण में धारण करता है, तभी उसके कोशों, अंग- अवयवों का पोषण और विकास होता है। गोद में माँ के दूध को भी बालक पचाकर अपने शरीर में धारण करता है, तभी वह विकसित होता और निरोग रहता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
तीसरा चरण- धियो यो नः प्रचोदयात् - वह परमात्मा जिसे हमने अपने अंदर धारण कर लिया है, वह हमारी बुद्धि को बल पूर्वक सही दिशा में लगा दें। हमारी बुद्धि सहज रूप में सांसारिक अनगढ़ कामनाओं से प्रेरित होती रहती है। उसी दिशा में उसके प्रयास होते हैं और जीवन का उपयोग अनगढ़ गतिविधियों में होने लगता है। परमात्मा ने मनुष्य को यह स्वतंत्रता दे रखी है कि वह जहाँ से चाहे, वहाँ से प्रेरणाएँ प्राप्त कर ले। अपने द्वारा दी गई इस स्वतंत्रता का वह स्वयं भी उल्लंघन नहीं करता। जब साधक स्वयं उसे वरण और धारण करके उससे जीवन संचालन की भावभरी प्रार्थना करता है, तभी वह उस भूमिका को स्वीकार करता है। अर्जुन ने श्रीकृष्ण का वरण किया, उसे अपने जीवनरथ पर बिठाला, धारण किया और उनकी आज्ञा पालन का वचन दिया, तभी कृष्ण ने वह भूमिका सँभाली। </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जीवन तो ईश्वर का बनाया हुआ साधन धाम और मोक्ष का द्वार है। अनगढ़ संचालन के कारण ही वह दीनता और भव बंधन का रूप ले लेता है। जब प्रभु स्वयं उसका संचालन करते हैं, तब भटकावों की गुंजाइश ही नहीं रह जाती। तब वह शरीर रहते अभ्युदय और शरीर छूटने के बाद निःश्रेयस- परमगति का अधिकारी बन जाता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
गायत्री के तीसरे चरण की सुसंगति युगऋषि द्वारा सुझाये गये तीसरे अनिवार्य क्रम आराधना से बैठती है। जब दिव्य चेतना हमारे जीवन के क्रिया- कलापों का संचालन करती है तो वह स्वभावतः लोक कल्याण- लोकहित के कार्यों में ही प्रदत्त होती है। गायत्री मंत्र का तीसरा चरण सधते ही साधक का हर कार्य प्रभु की प्रसन्नता के लिए होने लगता है। जीवन सम्पदा के कण- कण का और समय के क्षण- क्षण का नियोजन प्रभु समर्पित कर्म में होने लगता है। उसका प्रत्येक कर्म ईश्वर की प्रसन्नता का आधार- आराधना बन जाता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
गायत्री मंत्र की सहज स्वीकारोक्ति अनेक धर्म- संप्रदायों में है। सनातनी और आर्य समाजी तो इसे सर्वश्रेष्ठ मानते ही हैं। वैष्णव सम्प्रदाय में भी अष्टाक्षरी मंत्र (श्रीकृष्णं शरणं मम) के साथ गायत्री मंत्र जप करने की बात कही गई है। स्वामीनारायण सम्प्रदाय की मार्गदर्शिका ‘शिक्षा पत्री’ में भी गायत्री महामंत्र का अनुमोदन किया गया है। संत कबीर ने ‘बीजक’ में परब्रह्म की व्यक्त शक्तिधारा को गायत्री कहा है। सत्साईं बाबा ने भी कहा है कि गायत्री मंत्र इतना प्रभावशाली हो गया है कि किसी को उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उन्होंने स्वयं गायत्री मंत्र का उच्चारण करके भक्तों से उसे जपने की अपील की है। </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस्लाम में गायत्री मंत्र जैसा ही महत्त्व सूरह फातेह को दिया गया है। अभी हिंदी और उर्दू में प्रकाशित पुस्तिका युग परिवर्तन इस्लामी दृष्टिकोण में सूरह फातेहा के तीन चरणों को गायत्री मंत्र की तरह जपने का प्रस्ताव किया गया है। उसे विचारशील मुसलमानों ने स्वीकार भी किया है। जरूरत यही है कि कर्मकाण्ड के कलेवर के साथ गायत्री विद्या के प्राण को भी जाग्रत् किया जाये। उपासना, साधना तथा आराधना के स्वरूप को और उन्हें जीवन में गतिशील बनाने के सूत्रों को जन- जन तक पहुँचाया जाये तो उज्ज्वल भविष्य में सब की भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है। </div>
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<br /></div>
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गायत्री मंत्र का भाव यदि किसी भी भाषा में दुहराया जाये, तो वह भी मंत्र की तरह ही काम करता है। थियोसॉफिकल सोसाइटी की पुस्तक भारत समाज पूजा की भूमिका में दिव्य दृष्टि सम्पन्न पादरी लैडविटर ने उक्त तथ्य को स्पष्ट किया है। </div>
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<br /></div>
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गायत्री जयंती पर्व गायत्री महाविद्या के अवतरण का पर्व है। इसी दिन सभी नैष्ठिक गायत्री साधकों को प्रयास करना चाहिए कि - गायत्री मंत्र जप आदि कर्मकाण्ड कलेवर को अपनायें, किंतु उसमें गायत्री के प्राण का, गायत्री महाविद्या का भी समावेश करें। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-6194821533208160952016-06-14T13:33:00.000+05:302016-06-14T13:33:08.843+05:30गायत्री मंत्र जप<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
गायत्री मंत्र को जगत की आत्मा माने गए साक्षात देवता सूर्य की उपासना के लिए सबसे सरल और फलदायी मंत्र माना गया है। यह मंत्र निरोगी जीवन के साथ-साथ यश, प्रसिद्धि, धन व ऐश्वर्य देने वाली होती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लेकिन इस गायत्री मंत्र 'ऊं भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्' के साथ कई युक्तियां भी जुड़ी है। पंडित 'विशाल' दयानंद शास्त्री बताते हैं कि अगर आपको गायत्री मंत्र का अधिक लाभ चाहिए तो इसके लिए गायत्री मंत्र की साधना विधि विधान और मन, वचन, कर्म की पवित्रता के साथ जरूरी माना गया है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
गायत्री मंत्र जप किसी गुरु के मार्गदर्शन में करना चाहिए।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
गायत्री मंत्र जप के लिए सुबह का समय श्रेष्ठ होता है। किंतु यह शाम को भी किए जा सकते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
गायत्री मंत्र के लिए स्नान के साथ मन और आचरण पवित्र रखें। किंतु सेहत ठीक न होने या अन्य किसी वजह से स्नान करना संभव न हो तो किसी गीले वस्त्रों से तन पोंछ लें।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
साफ और सूती वस्त्र पहनें।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कुश या चटाई का आसन बिछाएं। पशु की खाल का आसन निषेध है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तुलसी या चन्दन की माला का उपयोग करें।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ब्रह्ममूहुर्त में यानी सुबह होने के लगभग 2 घंटे पहले पूर्व दिशा की ओर मुख करके गायत्री मंत्र जप करें। शाम के समय सूर्यास्त के घंटे भर के अंदर जप पूरे करें। शाम को पश्चिम दिशा में मुख रखें।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस मंत्र का मानसिक जप किसी भी समय किया जा सकता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
शौच या किसी आकस्मिक काम के कारण जप में बाधा आने पर हाथ-पैर धोकर फिर से जप करें। बाकी मंत्र जप की संख्या को थोड़ी-थोड़ी पूरी करें। साथ ही एक से अधिक माला कर जप बाधा दोष का शमन करें।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
गायत्री मंत्र जप करने वाले का खान-पान शुद्ध और पवित्र होना चाहिए। किंतु जिन लोगों का सात्विक खान-पान नहीं है, वह भी गायत्री मंत्र जप कर सकते हैं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र के असर से ऐसा व्यक्ति भी शुद्ध और सद्गुणी बन जाता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-25819683023126932642016-06-14T13:30:00.001+05:302016-06-14T13:30:57.354+05:30गायत्री मंत्र जप से लाभ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
गायत्री मंत्र का जाप करने से उत्साह एवं सकारात्मकता से आपकी त्वचा में चमक आती है, तामसिकता से घृणा, और परमार्थ में रूचि जागती है, पूर्वाभास होने लगता है, आशीर्वाद देने की शक्ति बढ़ती है, नेत्रों में तेज आता है, स्वप्न सिद्ध हो जाते हैं, क्रोध शांत होता है, ज्ञान की वृद्धि होती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यदि कोई व्यक्ति जीवन की समस्याओं से बहुत त्रस्त है तो उसकी समस्याएं समाप्त हो जाएंगी। वह पीपल, शमी, वट, गूलर, पाकर की समिधाएं लेकर एक पात्र में कच्चा दूध भरकर रख लें एवं उस दूध के सामने एक हजार गायत्री मंत्र का जाप करें। इसके बाद एक-एक समिधा को दूध में स्पर्श करा कर गायत्री मंत्र का जप करते हुए अग्रि में होम करने से समस्त परेशानियों एवं दरिद्रता से मुक्ति मिल जाती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">विद्यार्थीयों के लिए: </span></b>गायत्री मंत्र का जप सभी के लिए उपयोगी है किंतु विद्यार्थियों के लिए तो यह मंत्र बहुत लाभदायक है। रोजाना इस मंत्र का एक सौ आठ बार जप करने से विद्यार्थी को सभी प्रकार की विद्या प्राप्त करने में आसानी होती है। विद्यार्थियों को पढऩे में मन नहीं लगना, याद किया हुआ भूल जाना, शीघ्रता से याद न होना आदि समस्याओं से निजात मिल जाती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">दरिद्रता के नाश के लिए : </span></b>यदि किसी व्यक्ति के व्यापार, नौकरी में हानि हो रही है या कार्य में सफलता नहीं मिलती, आमदनी कम है तथा व्यय अधिक है तो उन्हें गायत्री मंत्र का जप काफी फायदा पहुंचाता है। शुक्रवार को पीले वस्त्र पहनकर हाथी पर विराजमान गायत्री माता का ध्यान कर गायत्री मंत्र के आगे और पीछे श्रीं सम्पुट लगाकर जप करने से दरिद्रता का नाश होता है। इसके साथ ही रविवार को व्रत किया जाए तो ज्यादा लाभ होता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">संतान संबंधी परेशानियां दूर करने के लिए : </span></b>किसी दंपत्ति को संतान प्राप्त करने में कठिनाई आ रही हो या संतान से दुखी हो अथवा संतान रोगग्रस्त हो तो प्रात: पति-पत्नी एक साथ सफेद वस्त्र धारण कर यौं बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर गायत्री मंत्र का जप करें। संतान संबंधी किसी भी समस्या से शीघ्र मुक्ति मिलती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए : </span></b>यदि कोई व्यक्ति शत्रुओं के कारण परेशानियां झेल रहा हो तो उसे प्रतिदिन या विशेषकर मंगलवार, अमावस्या अथवा रविवार को लाल वस्त्र पहनकर माता दुर्गा का ध्यान करते हुए गायत्री मंत्र के आगे एवं पीछे क्लीं बीज मंत्र का तीन बार सम्पुट लगाकार एक सौ आठ बार जाप करने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है। मित्रों में सद्भाव, परिवार में एकता होती है तथा न्यायालयों आदि कार्यों में भी विजय प्राप्त होती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">विवाह कार्य में देरी हो रही हो तो : </span></b>यदि किसी भी जातक के विवाह में अनावश्यक देरी हो रही हो तो सोमवार को सुबह के समय पीले वस्त्र धारण कर माता पार्वती का ध्यान करते हुए ह्रीं बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर एक सौ आठ बार जाप करने से विवाह कार्य में आने वाली समस्त बाधाएं दूर होती हैं। यह साधना स्त्री पुरुष दोनों कर सकते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">यदि किसी रोग के कारण परेशानियां हों तो : </span></b>यदि किसी रोग से परेशान है और रोग से मुक्ति जल्दी चाहते हैं तो किसी भी शुभ मुहूर्त में एक कांसे के पात्र में स्वच्छ जल भरकर रख लें एवं उसके सामने लाल आसन पर बैठकर गायत्री मंत्र के साथ ऐं ह्रीं क्लीं का संपुट लगाकर गायत्री मंत्र का जप करें। जप के पश्चात जल से भरे पात्र का सेवन करने से गंभीर से गंभीर रोग का नाश होता है। यही जल किसी अन्य रोगी को पीने देने से उसके भी रोग का नाश होता हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">रोग निवारण के लिए: </span></b>किसी भी शुभ मुहूर्त में दूध, दही, घी एवं शहद को मिलाकर एक हजार गायत्री मंत्रों के साथ हवन करने से चेचक, आंखों के रोग एवं पेट के रोग समाप्त हो जाते हैं। इसमें समिधाएं पीपल की होना चाहिए। गायत्री मंत्रों के साथ नारियल का बुरा एवं घी का हवन करने से शत्रुओं का नाश हो जाता है। नारियल के बुरे मे यदि शहद का प्रयोग किया जाए तो सौभाग्य में वृद्धि होती हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-27109830390724784952016-06-14T13:28:00.002+05:302016-06-14T13:28:14.112+05:30अमृत की तरह है गायत्री मंत्र<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
हमारे संत, महात्माओं और ऋर्षियों ने मां गायत्री देवी के मंत्र यानी गायत्री मंत्र को बहुत ही दुर्लभ बताया है। जिसे लगभग सभी सम्प्रदाय एक मत में स्वीकार करते हैं। अथर्ववेद 19-71 में गायत्री मां की स्तुति की गई है, जिसमें उन्हें आयु, प्राण, शक्ति, कीर्ति, धन और ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली देवी कहा गया है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #073763;">ऋर्षियों की वाणी से...</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #660000;"><b>देवर्षि नारदजी</b> </span>का कथन है, 'गायत्री भक्ति का ही स्वरूप है। जहां भक्ति रूपी गायत्री है, वहां श्रीनारायण का निवास होने में कोई संदेह नहीं करना चाहिए।'</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">चरक ऋषि: </span></b>'जो ब्रह्मचर्य गायत्री देवी की उपासना करता है और आंवले के ताजे फलों का सेवन करता है, वह दीर्घजीवी होता है।'</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">ऋषि विश्वामित्र: </span></b>'ब्रह्मा जी ने तीनों वेदों का सार तीन चरण वाला गायत्री मंत्र निकाला है। गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला और कोई मंत्र नहीं है। जो मनुष्य नियमित रूप से तीन वर्ष तक गायत्री जाप करता है, वह ईश्वर को प्राप्त करता है। जो द्विज दोनों संध्याओं में गायत्री जपता है, वह वेद पढ़ने के फल को प्राप्त करता है। अन्य कोई साधना करे या न करे, केवल गायत्री जप से भी सिद्धि पा सकता है। नित्य एक हजार जप करने वाला पापों से वैसे ही छूट जाता है, जैसे केंचुली से सांप छूट जाता है।'</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">ऋषि शंख : </span></b>'नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़ कर बचाने वाला गायत्री मंत्र ही है। उससे उत्तम वस्तु स्वर्ग और पृथ्वी पर कोई नहीं है। गायत्री का ज्ञाता निस्संदेह स्वर्ग को प्राप्त करता है।'</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">ऋषि पाराशर: </span></b>'समस्त जप सूक्तों तथा वेद मंत्रों में गायत्री मंत्र परम श्रेष्ठ है। वेद और गायत्री की तुलना में गायत्री का पलड़ा भारी है। भक्तिपूर्वक गायत्री का जप करने वाला मुक्त होकर पवित्र बन जाता है। वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास पढ़ लेने पर भी जो गायत्री से हीन है, उसे ब्राह्मण नहीं समझना चाहिए।'</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">महर्षि व्यास: '</span></b>जिस तरह पुष्प का सार शहद, दूध का सार घृत है, उसी प्रकार समस्त वेदों का सार गायत्री है सिद्ध की हुई गायत्री कामधेनु के समान है।गंगा शरीर के पापों को निर्मल करती है, गायत्री रूपी ब्रह्म गंगा से आत्मा पवित्र होती है। जो गायत्री छोड़कर अन्य उपासनाएं करता है, वह पकवान छोड़कर भिक्षा मांगने वाले के समान मूर्ख हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #073763;">महापुरुषों की वाणी से...</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #660000;"><b>महात्मा गांधी: </b></span>'गायत्री मंत्र निरंतर जप रोगियों को अच्छा करने और आत्मा की उन्नति के लिये उपयोगी है। गायत्री का स्थिर चित्त और शान्त हृदय से किया हुआ जप आपत्तिकाल में संकटों को दूर करने का प्रभाव रखता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">लोकमान्य तिलक :</span></b> 'जिस बहुमुखी दासता के बंधनों में भारतीय प्रजा जकड़ी हुई है, उसके लिये आत्मा के अन्दर प्रकाश उत्पन्न होना चाहिये, जिससे सत् और असत् का विवेक हो, कुमार्ग को छोड़कर श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले।'</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">महामना मदनमोहन मालवीय : '</span></b>ऋषियों ने जो अमूल्य रत्न हमें दिए हैं, उनमें से एक अनुपम रत्न गायत्री मंत्र है। गायत्री से बुद्धि पवित्र होती है। ईश्वर का प्रकाश आत्मा में आता है। इस प्रकाश में असंख्य आत्माओं को भव- बंधन से त्राण मिला है। गायत्री में ईश्वर परायणता के भाव उत्पन्न करने की शक्ति है। साथ ही वह भौतिक अभावों को दूर करती है। गायत्री की उपासना ब्राह्मणों के लिये तो अत्यन्त आवश्यक है। जो ब्राह्मण गायत्री जप नहीं करता, वह अपने कर्तव्य धर्म को छोड़ने का अपराधी होता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">रवीन्द्रनाथ टैगोर:</span></b> 'भारतवर्ष को जगाने वाला जो मंत्र है, वह इतना सरल है कि एक ही श्वास में उसका उच्चारण किया जा सकता है। वह है गायत्री मंत्र, इस पुनीत मंत्र का अभ्यास करने में किसी प्रकार के तार्किक ऊहापोह, किसी प्रकार के मतभेद अथवा किसी प्रकार के बखेड़े की गुंजाइश नहीं है।'</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">स्वामी रामकृष्ण परमहंस :</span></b> 'मैं लोगों से कहता हूं कि लम्बी साधना करने की उतनी आवश्यकता नहीं है। इस छोटी- सी गायत्री की साधना करके देखो। गायत्री का जप करने से बड़ी- बड़ी सिद्धियां मिल जाती हैं। यह मंत्र छोटा है, पर इसकी शक्ति बड़ी भारी है।'</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">स्वामी विवेकानन्द: </span></b>'राजा से वही वस्तु मांगी जानी चाहिये, जो उसके गौरव के अनुकूल हो। परमात्मा से मांगने योग्य वस्तु सद्बुद्धि है। जिस पर परमात्मा प्रसन्न होते हैं, उसे सद्बुद्धि प्रदान करते हैं। सद्बुद्धि से सत् मार्ग पर प्रगति होती है और सत् कर्म से सब प्रकार के सुख मिलते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">जगद्गुरु शंकराचार्य: </span></b>'गायत्री की महिमा का वर्णन करना मनुष्य की सार्मथ्य के बाहर है। बुद्धि का होना इतना बड़ा कार्य है, जिसकी समता संसार के और किसी काम से नहीं हो सकती। आत्म- प्राप्ति करने की दिव्य दृष्टि जिस बुद्धि से प्राप्त होती है, उसकी प्रेरणा गायत्री द्वारा होती है।'</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-50955968906215614842016-06-14T13:25:00.000+05:302016-06-14T13:25:00.530+05:30मां गायत्री की उपासना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
गायत्री की उपासना तीनों कालों में की जाती है, प्रात: मध्याह्न और सायं। तीनों कालों के लिये इनका पृथक्-पृथक् ध्यान है। प्रात:काल ये सूर्यमण्डल के मध्य में विराजमान रहती है। उस समय इनके शरीर का रंग लाल रहता है। ये अपने दो हाथों में क्रमश: अक्षसूत्र और कमण्डलु धारण करती हैं। इनका वाहन हंस है तथा इनकी कुमारी अवस्था है। इनका यही स्वरूप ब्रह्मशक्ति गायत्री के नाम से प्रसिद्ध है। इसका वर्णन ऋग्वेद में प्राप्त होता है।<br /><br />मध्याह्न काल में इनका युवा स्वरूप है। इनकी चार भुजाएं और तीन नेत्र हैं। इनके चारों हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पाते हैं। इनका वाहन गरूड है। गायत्री का यह स्वरूप वैष्णवी शक्ति का परिचायक है। इस स्वरूप को सावित्री भी कहते हैं। इसका वर्णन यजुर्वेद में मिलता है।<br /><br />सायं काल में गायत्री की अवस्था वृद्धा मानी गई है। इनका वाहन वृषभ है तथा शरीर का वर्ण शुक्ल है। ये अपने चारों हाथों में क्रमश: त्रिशूल, डमरू, पाश और पात्र धारण करती हैं। यह रुद्र शक्ति की परिचायिका हैं इसका वर्णन सामवेद में प्राप्त होता है।<br /><br />शास्त्रों के अनुसार गायत्री मंत्र को वेदों का सर्वश्रेष्ठ मंत्र बताया गया है। इसके जप के लिए तीन समय बताए गए हैं। गायत्री मंत्र का जप का पहला समय है प्रात:काल, सूर्योदय से थोड़ी देर पहले मंत्र जप शुरू किया जाना चाहिए। जप सूर्योदय के पश्चात तक करना चाहिए। मंत्र जप के लिए दूसरा समय है दोपहर का। दोपहर में भी इस मंत्र का जप किया जाता है।<br /><br />तीसरा समय है शाम को सूर्यास्त के कुछ देर पहले मंत्र जप शुरू करके सूर्यास्त के कुछ देर बाद तक जप करना चाहिए। इन तीन समय के अतिरिक्त यदि गायत्री मंत्र का जप करना हो तो मौन रहकर या मानसिक रूप से जप करना चाहिए। मंत्र जप तेज आवाज में नहीं करना चाहिए।<br /><br />हम नित्य गायत्री मंत्र का जाप करते हैं। लेकिन उसका पूरा अर्थ नहीं जानते। गायत्री मंत्र की महिमा अपार हैं। गायत्री, संहिता के अनुसार, गायत्री मंत्र में कुल 24 अक्षर हैं। ये चौबीस अक्षर इस प्रकार हैं- 1। तत् 2। स 3। वि 4। तु 5। र्व 6। रे 7। णि 8। यं 9। भ 10। गौं 11। दे 12। व 13। स्य 14। धी 15। म 16। हि 17। धि 18। यो 19। यो 20। न: 21। प्र 22। चो 23। द 24। यात् वृहदारण्यक के अनुसार हम उक्त शब्दावली का भाव इस प्रकार समझते हैं।<br /><br />तत्सवितुर्वरेण्यं: अर्थात् मधुर वायु चलें, नदी और समुद्र रसमय होकर रहें। औषधियां हमारे लिए मंगलमय हों। भूलोक हमें सुख प्रदान करें।<br /><br />भर्गो देवस्य धीमहि:अर्थात् रात्रि और दिन हमारे लिए सुखकारण हों। पृथ्वी की रज हमारे लिए मंगलमय हो।<br /><br />धियो यो न: प्रचोदयात्: अर्थात् वनस्पतियां हमारे लिए रसमयी हों। सूर्य हमारे लिए सुखप्रद हो, उसकी रश्मियां हमारे लिए कल्याणकारी हों। सब हमारे लिए सुखप्रद हों। मैं सबके लिए मधुर बन जाऊं।<br /><br />गायत्री मंत्र का अगर हम शाब्दिक अर्थ निकालें तो, उसके भाव इस प्रकार निकलते हैं-तत् वह अनंत परमात्मा, सवितु: सबको उत्पन्न् करने वाला, वरेण्यम्: ग्रहण करने योग्य या तृतीय के लायक, भर्गों-सब पापों का नाश करने वाला, देवस्य: प्रकाश और आनंद देने वाले दिव्य रूप ऐसे परमात्मा का, धीमहि:-हम सब ध्यान करते हैं, धिय:-बुद्धियों को, य:-वह परमात्मा, न:-हमारी, प्रचोदयात्:-धर्म, काम, मोक्ष में प्रेरणा करके, संसार से हटकर अपने स्वरूप में लगाए और शुद्ध बुद्धि प्रदान करें।<br /></div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-759767285315316982013-07-21T14:31:00.002+05:302013-07-21T14:53:08.806+05:30भगवत्प्राप्ति के तत्व <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
१ अहिंसा - मन वाणी और शरीर से किसी प्रकार से भी किसी को दुःख न देना ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
२. सत्य - मन और इन्द्रियों के द्वरा जैसा निश्चय किया हो, वैसा का वैसा ही प्रिय शब्दों में कहना ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
३. अस्तेय - चोरी का सर्वथा आभाव ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
४. ब्रह्मचर्य - सभी प्रकार के मैथुनों का आभाव ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
५. अपैशुनता - किसी की निंदा न करना ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
६. लज्जा / अमानित्व - सत्कार, मान और पूजा आदि का ना चाहना ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
७. निष्कपटता एवं शौच - बाहर एवं भीतर की पवित्रता । ( सत्यता पूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की और उसके अन्न से आहार की एवं यथायोग्य बर्ताव से आचरणों की और जल मिट्टी आदि से शरीर की शुद्धि को तो बाहर की शुद्धि एवं राग द्वेष तथा कपट आदि विकारों का नाश होकर मन का स्वच्छ एवं शुद्ध हो जाना भीतर की शुद्धि कहलती है । )</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
८. संतोष - तृष्णा का सर्वथा आभाव ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
९. तितिक्षा - शीत ऊष्ण सुख दुःख आदि द्वंदों को सहन करना ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
१० सत्संग सेवा यज्ञ दान तप - स्वधर्म पालन के लिए कष्ट सहना ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
११ स्वाध्याय - वेद और सत - शास्त्रों का अध्यन एवं भगवान के गुणों का कीर्तन ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
१२.शम - मन का वश में होना ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
१३ दम - इन्द्रियों का वश में होना ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
१४.विनय / आर्जव - शरीर एवं इन्द्रियों सहित मन की सरलता ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
१५ दया - दुखियों में करूणा ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
१६. श्रद्धा - वेद, शास्त्र, महात्मा, गुरु और परमेश्वर के वचनों में प्रत्यक्ष के सदृश्य विश्वास ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
१७ . विवेक - सत एवं असत पदार्थ का यथार्थ ज्ञान ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
१८ . वैराग्य - ब्रह्मलोक तक के सम्पूर्ण पदार्थों में आसक्ति का अत्यंत आभाव ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
१९. एकांतवास - शुद्ध देश का सेवन करते हुए एकांत में स्तिथि । </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
२०. अपरिग्रह - ममत्व बुद्धि से संग्रह का आभाव</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
२१. समाधान - मन में संशय और विक्षेप का आभाव ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
२२. उपरामता , तेज - श्रेष्ठ पुरुषों की उस शक्ति का नाम तेज है की जिसके प्रभाव से विषयासक्त और नीच प्रकति वाले मनुष्य भी प्रायः पाप आचरण से रूककर उनके कथन अनुसार कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
२३। क्षमा - अपना अपराध करने वालों को किसी प्रकार भी दंड देने का भाव न रखना ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
२४. धैर्य - भारी विपत्ति आने पर भी अपनी स्तिथि से चलायमान न होना ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
२५. अद्रोह - अपने साथ द्वेष रखने वालों से भी द्वेष न रखना ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
२६. अभय - सर्वथा भय का आभाव ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
२७. निरअहंकारता, शान्ति - मनोवृतियों और वासनाओं का अत्यंत आभाव होना और मन में नित्य-निरंतर प्रसन्नता का रहना ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<br />
<br /></div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-91728032008513173382012-11-05T21:39:00.001+05:302012-11-05T21:39:36.154+05:30ईश्वर है या ईश्वर नहीं है ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">एक पक्ष कहता है की ईश्वर नही है और आस्तिक पक्ष कहता है की ईश्वर है | अगर ईश्वर नहीं है यही सत्य है तो नास्तिक और आस्तिक दोनों बराबर ही रहे क्योंकि ईश्वर को मानने वालो की कोई हानि नहीं हुई परन्तु यदि ईश्वर है तो ईश्वर को मानने वाले पक्ष को तो परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है पर ईश्वर को न मानने वाला तो इस रस से हमेशा अनजान ही रह जायेगा |</span></div>
<span style="font-size: large;"></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<span style="font-size: large;">
<div style="text-align: justify;">
किसी वस्तु की नकारने के लिए भी उसकी विपक्ष की स्वीकृति आवश्यक है जैसे यदि हम कहे की अँधेरा है तो प्रकाश की गैर-मौजूदगी ही अँधेरा है । यदि कोई मनुष्य जन्म से अँधा है और आप उसे समझाए की नीला रंग कितना मन भवन है तो उसकी प्रतिक्रया क्या होगी ?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
किसी वस्तु की प्राप्ति पर ही उसका निषेध किया जाता है | कोई यह क्यों नहीं कहता की इन्सान अंडा नहीं देता क्योंकि जो चीज होती ही नहीं उसका निषेध भी नहीं बनता ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जो मनुष्य अंग्रेजी भाषा को मानता है तो वह उसे सिखने का अभ्यास कर सकता है | पढ़ाई करेगा तो उसको अंग्रेजी आ जाएगी पर जो मनुष्य अंग्रेजी भाषा को मानता ही नहीं तो वह उसे सिखने का अभ्यास ही क्यों करेगा | अब दोनों के पास एक तार ( लेटर ) आया की अमुक व्यक्ति बीमार है तो अंग्रेजी के जानकर ने पढ़ा और जाकर देखा तो बात सच निकली परन्तु जिसने अंग्रेजी भाषा को माना ही नहीं तो तो वह वहां नहीं पहुच पाएगा ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ऐसे ही जब वस्तु होती है उसी को प्राप्त करने की इच्छा होती है जो वस्तु नहीं होती उसको प्राप्त करने की इच्छा नहीं होती जैसे किसी के मन में यह इच्छा नहीं होती की मैं आकाश के फल खाऊ या आकाश के फुल सूंघू क्योंकि आकाश में फल फूल लगते ही नहीं मनुष्य की तो यही इच्छा रहती है की मैं सदा जीता रहूँ कभी न मरुँ सब जान लूँ कोई अज्ञान न रहे सदा सुखी रहूँ कभी दुखी न रहूँ सदा जीता रहूँ यह चित की इच्छा है सब जान लूँ यह सत की इच्छा है और सदा सुखी रहूँ यह आनंद की इच्छा है इससे भी सिद्ध हुआ की ऐसा कोई सत -चित -आनंद स्वरूप तत्व है जिसको प्राप्त करना मनुष्य चाहता है ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ऐसे ही जो ईश्वर प्रप्ति में लगे हैं उनमे सामान्य मनुष्यों से विशेषता दिखती है उनके संग से, भाषण से शांति मिलती ही केवल मनुष्यों को ही नहीं प्रत्युत पशु पक्षी आदि को भी उनसे शांति मिलती है यह बात अगर कोई चाहे तो इसी जीवन में देख सकता है <span style="background-color: white; font-family: arial, sans-serif; text-align: start; white-space: nowrap;">अतएव</span> जिन्हें ईश्वर प्राप्ति हो गयी हो उनमें विलक्षणता आ गयी यदि ईश्वर है ही नहीं तो यह विलक्षणता कहाँ से आई ?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हर मनुष्य अपने में एक कमी का अपूर्णता का अनुभव करता है अगर इस अपूर्णता की पूर्ती की कोई चीज नहीं होती तो मनुष्य को अपूर्णता का अनुभव होता ही नहीं जैसे मनुष्य को भूख लगती है तो सिद्ध होता है की कोई खाद्य वस्तु है प्यास लगती है तो सिद्ध होता है की कोई पेय वस्तु है ऐसे ही मनुष्य को अपूर्णता का अनुभव होता है तो यह भी सिद्ध है की कोई पूर्ण तत्व है उस पूर्ण तत्व को ही ईश्वर कहते हैं ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कोई भी मनुष्य यदि अपने से किसी को बड़ा मानता है तो उसने वास्तव में ईश्वर को स्वीकार कर लिया क्योंकि जहाँ बढ़पन्न की परंपरा समाप्त होती है वहीँ ईश्वर है </div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #cc0000;"><b>पूर्वेषा मापी गुरुह काले न नव चाचे डट पतंजल योग दर्शन १ |२६ </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
कोई व्यक्ति होता है तो उसका पिता होता है और उसके पिता का भी कोई पिता होता है यह परंपरा जहाँ समाप्त होती है उसका नाम ईश्वर है </div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #cc0000;"><b>पितासि लोकस्य चराचरस्य गीता अध्याय ११|४३ </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
कोई बलवान होता है तो उससे भी कोई अधिक बलवान होता है यह बलवत्ता की अवधी जहाँ समाप्त होती है उसका नाम ईश्वर है क्योंकि उस सामान कोई बलवान नहीं तात्पर्य यह है की बल बुद्धि विद्या योग्यता ऐश्वर्य शोभा आदि गुणों की सीमा जहाँ समाप्त होती है वही ऐश्वर्य है क्योंकि उसके समान कोई नहीं है </div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #cc0000;"><b>न त्व तसमो सत्य भी अदिख कुतो अन्य ११\४६</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वास्तव में ईश्वर मानने का, श्रद्धा का विषय है विचार का नहीं क्योंकि जहाँ तक जाने की सीमा है वहीँ तक विचार संभव है ईश्वर जो असीम है उसपर विचार कैसे करें वो तो मानना ही पड़ेगा और जिज्ञासा उसी विषय में होती ही जिसके विषय में कुछ जानते हैं और कुछ नही जानते पर जिसके विषय में हम कुछ नहीं जानते उसके विषय में न ही जिज्ञासा होती ही और न ही विचार उसको तो हम माने य न माने इसमें हम स्वतंत्र हैं ।</div>
</span></div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-48453683736608382532012-11-05T21:39:00.000+05:302012-11-05T21:39:24.547+05:30मन का स्वभाव<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">मन का स्वभाव है संकल्प विकल्प | जब उसमे संकल्प विकल्पों की लहरें उठती हैं तो मन व्याकुल होता है, इन लहरों का नाम ही मन है |इस संकल्प विकल्प के करण ही कल्पना उत्पन्न होती है, योजनाये बनती हैं, उनको पूरा करने के उपाय ढ़ूँढ़े जाते हैं| इनको पूरा करने के लिए शरीर और इन्द्रियां भी सक्रिय होते हैं, तब व्यक्ति कर्म करता है | अभिमान के करण वह कर्ता बनता है जिससे कर्मों का बंधन बनता है, नए संस्कार बनते हैं , इस प्रकार पूरा कर्म जाल बनकर तैयार हो जाता है | यह कर्म जाल ही संसार है यही बंधन है |</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">परमात्मा कहते हैं :- तुम एक चेतन आत्मा है , तेरा बंधन और मोक्ष नहीं है , तू एक है और शांत है| इसलिए अब तू नए सिरे से अपने ह्रदय को इन संकल्प विकल्प से दुखी मत कर नहीं तो फिर कर्मों के बंधन रुपी जाल में उलझ जायेगा| यह आत्मा तेरा स्वरुप है जिसे तूने प्राप्त कर लिया है अतः अब तू शांत हो कर आनंद मय हो कर अपने स्वरुप इस आत्मा में सुख पूर्वक स्थित हो|</span></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-36553847383126794652012-11-05T20:23:00.000+05:302012-11-05T20:23:18.186+05:30जीवते शरदः शतं - सौ साल जियें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आयुर्वेद कहता है- नेत्रों को जल से धोना, प्रतिदिन व्यायाम करना, पैरो के तलवे में तेल लगाना-ये प्रयोग जरा और व्याधिनाशक है. जो वसंत ऋतू में नित्य भ्रमण करता है, स्वल्प मात्रा में अग्निसेवन तथा उचित आहार लेता है. ग्रीष्म ऋतू में जो सरोवर के शीतल जल में स्नान करता, घिसा चन्दन लगता और वायु सेवन करता है. वर्षा ऋतू में जो गरम जल से नहाता, वर्षा के जल का सेवन नहीं करता और ठीक समय पर परिमित भोजन करता है, उसे कभी वृधावस्था प्राप्त नहीं होती. जो शरद ऋतू की प्रचंड धूप का सेवन ना कर उसमें घूमता-फिरता नहीं तथा कुएं या बाबडी के जल से नहाता और सीमित भोजन करता है, जो हेमंत ऋतू में प्रातःकाल पोखरे के जल से स्नान कर यथासमय आग तापता है, तुंरत तैयार हुई गरमागरम रसोई खाता है तथा जो शिशिर ऋतू में गरम कपडे पहनता, प्रज्वलित अग्नि पर नए-नए बने गरम अन्न का सेवन करता है तथा गरम जल से ही स्नान करता है, उसे कभी वृधावस्था छू भी नहीं सकती. जो भूख लगने पर ही उत्तम खाना खाता है, सदा शाकाहार करता, प्रतिदिन ताजा दही, ताजा मक्खन और गुड़ खाता, संयम से रहता है, उसे जरावस्था कभी नहीं सताती. सदा स्वस्थ रहने के लिए सदा मुस्कुराते रहिये |</span></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-84536284678492729552012-11-05T18:54:00.000+05:302012-11-05T18:54:40.547+05:30व्रत करने की विधि<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #073763; font-size: x-large;"><b><u>व्रत करने की विधि</u></b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #073763; font-size: x-large;"><b><u><br /></u></b></span></div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, Helvetica, Georgia, sans-serif; line-height: 18px; padding: 10px 0px 0px; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">व्रत को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करें तथा भोग विलास से भी दूर रहें । प्रात: लकड़ी का दातुन तथा पेस्ट का उपयोग न करें; नींबू, जामुन या आम के पत्ते लेकर चबा लें और उँगली से कंठ शुद्ध कर लें । वृक्ष से पत्ता तोड़ना भी वर्जित है, अत: स्वयं गिरे हुए पत्ते का सेवन करे । यदि यह सम्भव न हो तो पानी से बारह कुल्ले कर लें । फिर स्नानादि कर मंदिर में जाकर पूजा पाठ करें या पुरोहितादि से कथा सत्संग आदि श्रवण करें । प्रभु के सामने इस प्रकार प्रण करना चाहिए कि: ‘आज मैं चोर, पाखण्डी और दुराचारी मनुष्य से बात नहीं करुँगा और न ही किसीका दिल दुखाऊँगा । गौ, ब्राह्मण आदि को फलाहार व अन्नादि देकर प्रसन्न करुँगा । रात्रि को जागरण कर कीर्तन करुँगा , इष्ट मंत्र अथवा गुरुमंत्र का जाप करुँगा, राम, कृष्ण , नारायण इत्यादि ईश्वर के नामों को कण्ठ का भूषण बनाऊँगा ।’ – ऐसी प्रतिज्ञा करके भगवान का स्मरण कर प्रार्थना करें कि : ‘हे त्रिलोकपति ! मेरी लाज आपके हाथ है, अत: मुझे इस प्रण को पूरा करने की शक्ति प्रदान करें ।’ मौन, जप, शास्त्र पठन , कीर्तन, रात्रि जागरण व्रत में विशेष लाभ पँहुचाते हैं।</span></div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, Helvetica, Georgia, sans-serif; line-height: 18px; padding: 10px 0px 0px; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">व्रत के दिन अशुद्ध द्रव्य से बने पेय न पीयें । कोल्ड ड्रिंक्स, एसिड आदि डाले हुए फलों के डिब्बाबंद रस को न पीयें । दो बार भोजन न करें । आइसक्रीम व तली हुई चीजें न खायें । फल अथवा घर में निकाला हुआ फल का रस अथवा थोड़े दूध या जल पर रहना विशेष लाभदायक है । व्रत के दिनों में काँसे के बर्तन, मांस, प्याज, लहसुन, मसूर, उड़द, चने, कोदो (एक प्रकार का धान), शाक, शहद, तेल और अत्यम्बुपान (अधिक जल का सेवन) – इनका सेवन न करें । व्रत के दिन हविष्यान्न (जौ, गेहूँ, मूँग, सेंधा नमक, कालीमिर्च, शर्करा और गोघृत आदि) का एक बार भोजन करें।</span></div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, Helvetica, Georgia, sans-serif; line-height: 18px; padding: 10px 0px 0px; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">फलाहारी को गोभी, गाजर, शलजम, पालक, कुलफा का साग इत्यादि सेवन नहीं करना चाहिए । आम, अंगूर, केला, बादाम, पिस्ता इत्यादि अमृत फलों का सेवन करना चाहिए ।</span></div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, Helvetica, Georgia, sans-serif; line-height: 18px; padding: 10px 0px 0px; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">जुआ, निद्रा, पान, दातुन, परायी निन्दा, चुगली, चोरी, हिंसा, मैथुन, क्रोध तथा झूठ, कपटादि अन्य कुकर्मों से नितान्त दूर रहना चाहिए । बैल की पीठ पर सवारी न करें ।</span></div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, Helvetica, Georgia, sans-serif; line-height: 18px; padding: 10px 0px 0px; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">भूलवश किसी निन्दक से बात हो जाय तो इस दोष को दूर करने के लिए भगवान सूर्य के दर्शन तथा धूप दीप से श्रीहरि की पूजा कर क्षमा माँग लेनी चाहिए । व्रत के दिन घर में झाडू नहीं लगायें, इससे चींटी आदि सूक्ष्म जीवों की मृत्यु का भय रहता है । इस दिन बाल नहीं कटायें । मधुर बोलें, अधिक न बोलें, अधिक बोलने से न बोलने योग्य वचन भी निकल जाते हैं । सत्य भाषण करना चाहिए । इस दिन यथाशक्ति अन्नदान करें किन्तु स्वयं किसीका दिया हुआ अन्न कदापि ग्रहण न करें । प्रत्येक वस्तु प्रभु को भोग लगाकर तथा तुलसीदल छोड़कर ग्रहण करनी चाहिए ।</span></div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, Helvetica, Georgia, sans-serif; line-height: 18px; padding: 10px 0px 0px; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">व्रत के दिन किसी सम्बन्धी की मृत्यु हो जाय तो उस दिन व्रत रखकर उसका फल संकल्प करके मृतक को देना चाहिए और श्रीगंगाजी में पुष्प (अस्थि) प्रवाहित करने पर भी व्रत रखकर व्रत फल प्राणी के निमित्त दे देना चाहिए । प्राणिमात्र को अन्तर्यामी का अवतार समझकर किसीसे छल कपट नहीं करना चाहिए । अपना अपमान करने या कटु वचन बोलनेवाले पर भूलकर भी क्रोध नहीं करें । सन्तोष का फल सर्वदा मधुर होता है । मन में दया रखनी चाहिए ।</span></div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, Helvetica, Georgia, sans-serif; line-height: 18px; padding: 10px 0px 0px; text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b></div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, Helvetica, Georgia, sans-serif; line-height: 18px; padding: 10px 0px 0px; text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">व्रत खोलने की विधि :</span></b></div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, Helvetica, Georgia, sans-serif; line-height: 18px; padding: 10px 0px 0px; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">व्रत को खोलते समय सेवापूजा की जगह पर बैठकर भुने हुए सात चनों के चौदह टुकड़े करके अपने सिर के पीछे फेंकना चाहिए । ‘मेरे सात जन्मों के शारीरिक, वाचिक और मानसिक पाप नष्ट हुए’ – यह भावना करके सात अंजलि जल पीना और चने के सात दाने खाकर व्रत खोलना चाहिए । व्रत के दिन ब्राह्मणों को मिष्टान्न, दक्षिणादि से प्रसन्न कर उनकी परिक्रमा कर लेनी चाहिए । इस विधि से व्रत करनेवाला उत्तम फल को प्राप्त करता है ।</span></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-77979541458241056952012-11-01T12:28:00.000+05:302012-11-06T12:30:04.899+05:30जानिए शिव ताण्डव स्तोत्र की महिमा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #073763; font-size: large;"><b><u style="background-color: white;"> शिव ताण्डव स्तोत्र की महिमा </u></b></span></div>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">वह स्तोत्र जो आपको सबकुछ देगा</span><br />
<div style="text-align: justify;">
<br />
हर किसी के मन में एक ख्याल हमेशा आता है कि क्या कोई ऐसा मंत्र है जो आपको सारा वैभव और सिद्धियां दे सकता है। मंत्रों में बड़ी शक्ति होती है, एक मंत्र का सही जाप आपकी जिंदगी बदल सकता है। ऐसा ही एक स्तोत्र है शिवतांडव स्तोत्र, जिसके जरिए आप न केवल धन-संपत्ति पा सकते हैं बल्कि आपका व्यक्तित्व भी निखर जाएगा। शिव तांडव स्तोत्र रावण द्वारा रचा गया है, इसकी कठिन शब्दावली और अद्वितीय वाक्य रचना इसे अन्य मंत्रों से अलग बनाती है। आपके जीवन में किसी भी सिद्धि की महत्वाकांक्षा हो इस स्तोत्र के जाप से आपको आसानी से प्राप्त हो जाएगी। सबसे ज्यादा फायदा आपकी वाक सिद्धि को होगा, अगर अभी तक आप दोस्तों में या किसी ग्रुप में बोलते हुए अटकते हैं तो यह समस्या इस स्तोत्र के पाठ से दूर हो जाएगी। इसकी शब्द रचना के कारण व्यक्ति का उच्चरण साफ हो जाता है। दूसरा इस मंत्र से नृत्य, चित्रकला, लेखन, युद्धकला, समाधि, ध्यान आदि कार्यो में भी सिद्धि मिलती है। इस स्तोत्र का जो भी नित्य पाठ करता है उसके लिए सारे राजसी वैभव और अक्षय लक्ष्मी भी सुलभ होती है।
</div>
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<br /></div>
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<b>शिव ताण्डव स्तोत्र</b> ( संस्कृत:शिवताण्डवस्तोत्रम् ) महान विद्वान एवं परम शिवभक्त लंकाधिपति रावण द्वारा विरचित भगवान शिव का स्तोत्र है। मान्यता है कि रावण ने कैलाश पर्वत ही उठा लिया था और जब पूरे पर्वत को ही लंका ले चलने को उद्यत हुआ तो भोले बाबा ने अपने अंगूठे से तनिक सा जो दबाया तो कैलाश फिर जहां था वहीं अवस्थित हो गया। शिव के अनन्य भक्त रावण का हाथ दब गया और वह आर्तनाद कर उठा - "शंकर शंकर" - अर्थात क्षमा करिए, क्षमा करिए और स्तुति करने लग गया; जो कालांतर में शिव तांडव स्त्रोत्र कहलाया।
</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">काव्य शैली</span></div>
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<br /></div>
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शिवताण्डव स्तोत्र स्तोत्रकाव्य में अत्यन्त लोकप्रिय है। यह पञ्चचामर छन्द में आबद्ध है। इसकी अनुप्रास और समास बहुल भाषा संगीतमय ध्वनि और प्रवाह के कारण शिवभक्तों में प्रचलित है। सुन्दर भाषा एवं काव्य-शैली के कारण यह स्तोत्रों विशेषकर शिवस्तोत्रों में विशिष्ट स्थान रखता है।
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<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><a href="http://mantrasangrah.blogspot.in/2012/11/blog-post_4.html" target="_blank">स्तोत्र पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करें -</a><a href="http://mantrasangrah.blogspot.in/2012/11/blog-post_4.html" target="_blank">शिव ताण्डव स्तोत्र -</a></b></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-7995837844937715152012-08-10T21:20:00.000+05:302012-11-05T20:13:51.037+05:30गीता एक महान ग्रंथ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="background-color: white; font-family: Bhaskar_WEB_Intro_Test; line-height: 20px; padding: 0px; text-align: justify;">
<div style="font-size: 16px;">
<span style="color: #444444;"><br /></span></div>
<b><span style="color: #444444;">एक-दूसरे के प्राणों के प्यासे कौरवों और पांडवों के बीच महाभारत शुरू होने से पहले योगिराज भगवान श्रीकृष्ण ने अट्ठारह अक्षौहिणी सेना के बीच मोह में फंसे और कर्म से विमुख अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को छंद रूप में यानी गाकर उपदेश दिया, इसलिए इसे गीता कहते हैं। चूंकि उपदेश देने वाले स्वयं भगवान थे, अत: इस ग्रंथ का नाम भगवद्गीता पड़ा।</span></b><br />
<span style="color: #444444;"><b><br /></b><span style="font-family: Verdana, Geneva, sans-serif; line-height: 18px;"><b>हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमदभगवद्गीता में ईश्वर के विराट स्वरूप का वर्णन है। महाप्रतापी अर्जुन को इस दिव्य स्वरूप के दर्शन कराकर कर्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग के महामंत्र द्वारा अर्जुन के साथ संसार के लिए भी सफल जीवन का रहस्य उजागर किया। </b></span></span><br />
<span style="color: #444444;"><b><br style="font-family: Verdana, Geneva, sans-serif; line-height: 18px;" /></b><span style="font-family: Verdana, Geneva, sans-serif; line-height: 18px;"><b>भगवान का विराट स्वरूप ज्ञान शक्ति और ईश्वर की प्रकृति के कण-कण में बसे ईश्वर की महिमा ही बताता है। माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन, नर-नारायण के अवतार थे और महायोगी, साधक या भक्त ही इस दिव्य स्वरूप के दर्शन पा सकता है। किंतु गीता में लिखी एक बात साफ करती है साधारण इंसान भी भगवान की विराट स्वरूप के दर्शन कर सभी पापों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो सकता है। जानते हैं वह विशेष बात -</b></span></span><br />
<span style="color: #444444;"><b><br style="font-family: Verdana, Geneva, sans-serif; line-height: 18px;" /></b><span style="font-family: Verdana, Geneva, sans-serif; line-height: 18px;"><b>श्रीमद्भगवद्गीता के पहले अध्याय में ही देवी लक्ष्मी द्वारा भगवान विष्णु के सामने यह संदेह किया जाता है कि आपका स्वरूप मन-वाणी की पहुंच से दूर है तो गीता कैसे आपके दर्शन कराती है? तब जगत पालक श्री हरि विष्णु गीता में अपने स्वरूप को उजागर करते हैं, जिसके मुताबिक - </b></span></span><br />
<span style="color: #444444;"><b><br style="font-family: Verdana, Geneva, sans-serif; line-height: 18px;" /></b><span style="font-family: Verdana, Geneva, sans-serif; line-height: 18px;"><b>पहले पांच अध्याय मेरे पांच मुख, उसके बाद दस अध्याय दस भुजाएं, अगला एक अध्याय पेट और अंतिम दो अध्याय श्रीहरि के चरणकमल हैं। </b></span></span><br />
<span style="color: #444444;"><b><br style="font-family: Verdana, Geneva, sans-serif; line-height: 18px;" /></b><b><span style="font-family: Verdana, Geneva, sans-serif; line-height: 18px;">इस तरह गीता के अट्ठारह अध्याय भगवान की ही ज्ञानस्वरूप मूर्ति है, जो पढ़ , समझ और अपनाने से पापों का नाश कर देती है। इस संबंध में लिखा भी गया है कि बुद्धिमान इंसान हर रोज अगर गीता के अध्याय या श्लोक के एक, आधा या चौथे हिस्से का भी पाठ करता है, तो उसके सभी पापों का नाश हो जाता है।</span></b></span><br />
<span style="color: #444444;"><span style="font-family: Verdana, Geneva, sans-serif; line-height: 18px;"><b><br /></b></span><b> भगवद्गीता में कई विद्याओं का उल्लेख आया है, जिनमें चार प्रमुख हैं - अभय विद्या, साम्य विद्या, ईश्वर विद्या और ब्रह्मा विद्या।</b></span><br />
<span style="color: #444444;"><br /></span>
<span style="color: #444444;"><b><br /></b><b>माना गया है कि अभय विद्या मृत्यु के भय को दूर करती है। साम्य विद्या राग-द्वेष से छुटकारा दिलाकर जीव में समत्व भाव पैदा करती है। ईश्वर विद्या के प्रभाव से साधक अहं और गर्व के विकार से बचता है। ब्रह्मा विद्या से अंतरात्मा में ब्रह्मा भाव को जागता है। गीता माहात्म्य पर श्रीकृष्ण ने पद्म पुराण में कहा है कि भवबंधन से मुक्ति के लिए गीता अकेले ही पर्याप्त ग्रंथ है। गीता का उद्देश्य ईश्वर का ज्ञान होना माना गया है।</b></span></div>
<br class="Apple-interchange-newline" /></div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-34049339468671958272011-11-11T11:47:00.000+05:302012-11-11T11:48:56.714+05:30धन पर चिंतन..<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #073763; font-size: x-large;"><u>धन पर ओशो का चिंतन..</u></span></div>
<br />
ध्यान हो तो धन भी सुंदर है। ध्यानी के पास धन होगा, तो जगत का हित ही होगा, कल्याण ही होगा। क्योंकि धन ऊर्जा है। धन शक्ति है। धन बहुत कुछ कर सकता है। मैं धन विरोधी नहीं हूं। मैं उन लोगों में नहीं, जो समझाते हैं कि धन से बचो। भागो धन से। वे कायरता की बातें करते हैं। मैं कहता हूं जियो धन में, लेकिन ध्यान का विस्मरण न हो। ध्यान भीतर रहे, धन बाहर। फिर कोई चिंता नहीं है। तब तुम कमल जैसे रहोगे, पानी में रहोगे और पानी तुम्हें छुएगा भी नहीं।<br />
<br />
ध्यान रहे, धन तुम्हारे जीवन का सर्वस्व न बन जाए। तुम धन को ही इकट्ठा करने में न लगे रहो। धन साधन है, साध्य न बन जाए। धन के लिए तुम अपने जीवन के अन्य मूल्य गंवा न बैठो। तब धन में कोई बुराई नहीं है। मैं चाहता हूं कि दुनिया में धन खूब बढ़े, इतना बढ़े कि देवता तरसें पृथ्वी पर जन्म लेने को।<br />
<br />
लेकिन धन सब कुछ नहीं है। कुछ और भी बड़े धन हैं। प्रेम का, सत्य का, ईमानदारी का, सरलता का, निर्दोषता का, निर-अहंकारिता का। ये धन से भी बड़े धन हैं। कोहिनूर फीके पड़ जाएं, ऐसे भी हीरे हैं- ये भीतर के हीरे हैं।<br />
<br />
एक दिन मुल्ला नसीरुद्दीन से किसी ने पूछा- नसीरुद्दीन सुना है कि तुमने नई फर्म बनाई है, कितने साझीदार हैं? मुल्ला ने कहा - अब आपसे क्या छिपाना। चार तो अपने ही परिवार के लोग है और एक पुराना मित्र। इस तरह पांच पार्टनर हैं। उसने पूछा- फर्म का नाम क्या रखा है? मुल्ला ने कहा - मेसर्स मुल्ला ऐंड मुल्ला ऐंड मुल्ला ऐंड मुल्ला ऐंड अब्दुल्ला कंपनी। उसने कहा- नाम तो बड़ा अच्छा है, मगर यह अब्दुल्ला कहां से बीच में आ टपका? दुखी स्वर में मुल्ला नसीरुद्दीन बोला- पैसा तो उसी बेवकूफ का लगा है।<br />
<br />
यहां मित्रता पैसे की है। संबंध पैसे के हैं। हम धन का एक ही अर्थ लेते हैं कि दूसरों की जेब से निकाल लें। इससे कुछ हल नहीं होता। धन उसकी जेब से तुम्हारी जेब में आ जाता है, फिर तुम्हारी जेब से दूसरा कोई निकाल लेता है। धन जेबों में घूमता रहता है, लेकिन धन पैदा नहीं होता। अभी हमने यह नहीं सीखा कि धन का सृजन कैसे किया जाता है। अभी धन हमारे लिए शोषण का ही अर्थ रखता है। जो सच में समृद्ध देश हैं, उन्हें पता है कि धन शोषण नहीं, सृजन है। हमारा देश किसी देश से गरीब नहीं है, लेकिन समस्या यह है कि हम मूढ़तापूर्ण बातों को महत्वपूर्ण मानते हैं।<br />
<br />
यहां दरिद्र को एक नया नाम दे दिया गया- दरिद्र नारायण। जब तुम दरिद्र को नारायण कहोगे, तो उसकी दरिद्रता मिटाओगे कैसे? भगवान को कोई मिटाता है क्या? भगवान को तो बचाना पड़ता है। दरिद्र नारायण की तो पूजा करनी होती है। दरिद्र नारायण के पैर दबाओ। उसे दरिद्र रखो, नहीं तो वह नारायण नहीं रह जाएगा। हम अगर गरीब की पूजा करेंगे, तो अमीर कैसे बनेंगे। अगर हम धन का तिरस्कार करेंगे, तब तो धन को पैदा करना ही बंद कर देंगे।<br />
<br />
हां, धन को शोषण से मत पैदा करना। धन का सृजन करने का तरीका खोजो। यह तो हमारे हाथ में है- मशीनें हैं, तकनीक है। जमीन से हम उतना ले सकते हैं, जितना चाहिए। गायें उतना दूध दे सकती हैं, जितना चाहिए। मगर हमें उसकी फिक्र ही नहींहै। हम तो बस गऊमाता के भक्त हैं। हमारी गायें दुनिया में सबसे कम दूध देती हैं और हम उनके भक्त हैं। हम दस हजार साल से जय गोपाल, जय गोपाल.. कृष्ण के गीत गा रहे हैं और गउएं? किसी की गऊ अगर तीन पाव दूध देती है तो वह समझता है कि बहुत है। स्वीडन में कोई गाय अगर तीन पाव दूध दे, तो वह कल्पना के बाहर है। पश्चिम में लोग भैंस का दूध नहीं पीते, क्योंकि गायें इतना दूध देती हैं कि भैंस का दूध पीने की जरूरत ही नहीं।<br />
<br />
सारी तकनीक उपलब्ध है। धन के सृजन के लिए मशीन की मदद लो। अगर तुम मशीन, रेलगाड़ी, टेलीग्राफ के खिलाफ रहोगे, तो दरिद्र ही रहोगे। दीन ही रहोगे। मशीनों का जितना उपयोग हो, उतना ही अच्छा है। क्योंकि मशीनें जितनी काम में आती हैं, आदमी का उतना ही श्रम बचता है। यह बचा हुआ श्रम किसी ऊंचाई के लिए लगाया जा सकता है। इसे नई खोजों में लगाया जाए। यह नए आविष्कारों में लगे। पृथ्वी सोना उगल सकती है, लेकिन बिना मशीन यह नहीं होगा। देश का औद्योगिकीकरण, यंत्रीकरण होना चाहिए। देश जितना समृद्ध होता है, उतना धार्मिक हो सकता है।</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-39046604788695225362011-10-26T19:50:00.000+05:302012-11-05T20:14:21.542+05:30स्वर्ग और नर्क <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif;"><span style="background-color: white; font-size: large;"><br /></span></span>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: verdana, geneva, lucida, 'lucida grande', arial, helvetica, sans-serif; font-size: large;">एक बार किसी गुरु से उसके शिष्य ने पूछा मैं जानना चाहता हुं कि स्वर्ग व नरक कैसे हैं? उसे गुरु ने कहा आंखे बंद करों और देखों। शिष्य ने आंखे बंद की और शांत शुन्यता में चला गया। गुरु ने कहा अब स्वर्ग देखों और थोड़ी देर बाद कहा अब नर्क देखों। उसके थोड़ी देर बाद गुरु ने पूछा- क्या देखा? वह बोला स्वर्ग में मैंने ऐसा कुछ नहीं देखा जिसकी लोग चर्चा करते हैं न ही अमृत की नदियां, न स्वर्ण भवन और न ही अप्सराएं। वहां तो कुछ भी नहीं था और नर्क में भी कुछ भी नहीं था न अग्रि की ज्वालाएं, न पीडि़तों का रूदन कुछ भी नहीं।शिष्य ने पूछा- इसका क्या कारण है? मैंने स्वर्ग देखा या नहीं देखा? गुरु हंसे और बोले- निश्चय ही तुमने स्वर्ग और नर्क देखे हैं लेकिन अमृत की नदियां, अप्सराएं, स्वर्ण भवन, पीड़ा व रूदन तुझे स्वयं वहां ले जाने होंगे। वे वहां नहीं मिलते जो हम अपने साथ ले जाते हैं वही वहां उपलब्ध हो जाता हैं। हम ही स्वर्ग हैं, हम ही नर्क । व्यक्ति जो अपने अंदर रखता है, वही अपने बाहर पाता है। भीतर स्वर्ग है तो बाहर स्वर्ग है और भीतर नर्क हो तो बाहर नर्क है। स्वयं में ही सब कुछ छुपा है।</span></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-32736424661459513092011-07-16T21:01:00.000+05:302012-11-05T20:14:55.526+05:30ऐसे 4 भक्तों पर होती है देवकृपा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
हर धर्म में सुख और शांति से भरा जीवन बिताने के लिए ईश्वर के प्रति विश्वास और आस्था को सबसे बेहतर तरीका माना गया है। जिसके लिए सभी अपनी धर्म परंपराओं के मुताबिक देव उपासना करते हैं। किंतु हर व्यक्ति के लिए सुख और शांति के अर्थ अलग हो सकते हैं।<br />
<br />
यही कारण है कि अलग-अलग कामनाओं या लक्ष्यों से देव उपासना की जाती है। हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता में इसी आधार पर 4 तरह के भक्तों और भक्ति के कारण बताए गए है, जिन पर भगवान की कृपा होती है, साथ ही यह भी साफ किया गया है कि इनमें से कौन-सा भक्त भगवान को भी सबसे ज्यादा प्यारा होता है? जानते हैं उन चार भक्तों को -<br />
<br />
- अर्थार्थी यानि सांसारिक पदार्थों के लिए भगवान को भजने वाला। सरल अर्थों में ऐसे लोग जीवन में भौतिक सुखो को पाने की इच्छा से भगवान को स्मरण करते हैं।<br />
<br />
- आर्त यानि संकटमुक्ति के लिए भगवान को भजना। सरल शब्दों में ऐसे लोग जिंदगी में आए संकट, दु:ख और पीड़ा से छुटकारा पाने की इच्छा से भगवान को याद करते हैं।<br />
<br />
- जिज्ञासु यानि भगवान के स्वरूप को जानने की इच्छा से भगवान को भजने वाला। मतलब है कि ऐसा भक्त भगवान के साक्षात रूप के दर्शन की कामना से भगवान की भक्ति में लीन हो जाता है।<br />
<br />
- ज्ञानी या निष्कामी यानि बिना किसी सांसारिक इच्छाओं, स्वार्थ या हितपूर्ति की कामना से प्रेम, समर्पण से भगवान की भक्ति करता है।<br />
<br />
इन चार भक्तों में वैसे तो सभी भगवान का ध्यान किसी भी रूप या कारण से करने के कारण श्रेष्ठ हैं। किंतु ज्ञानि और निष्कामी भक्त की स्वार्थ या इच्छाओं से परे होकर की गई भक्ति, सेवा और शरणागति से वह भगवान को भी बहुत पंसद होता है।</div>
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Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-36630499026909182982011-07-05T11:43:00.000+05:302012-11-05T18:50:56.505+05:30श्री कृष्ण का मानव जीवन जीने का उपदेश<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: center;"><div style="text-align: right;"><b><span style="color: #cccccc;">गीता प्रसार </span></b></div><b><span style="color: #444444;">श्रीमद भगवद एकादश स्कंध अध्याय ७ श्लोक ६-१२</span></b><br /><div style="text-align: left;"><b><span style="color: #444444;"><br /></span></b><br /><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #444444;">तुम अपने आत्मीय स्वजन और बन्धु-बांधवों का स्नेह सम्बन्ध छोड़ दो और अनन्य प्रेम से मुझमें अपना मन लगाकर सम दृष्टी से पृथ्वी पर स्वच्छंद विचरण करो|</span></b><br /><b><span style="color: #444444;"><br /></span></b><b><span style="color: #444444;">इस जगत में जो कुछ मन से सोचा जाता है, वाणी से कहा जाता है, नेत्रों से देखा जाता है, और श्रवण आदि इन्द्रियों से अनुभव किया जाता है, वह सब नाशवान है, स्वप्न की तरह मन का विलास है| इसीलिए माया-मात्र है, मिथ्या है-ऐसा जान लो |</span></b><br /><b><span style="color: #444444;"><br /></span></b><b><span style="color: #444444;">जिस पुरुष का मन अशांत है, असयंत है उसी को पागलों की तरह अनेकों वस्तुयें मालूम पड़ती हैं ; वास्तव में यह चित्त का भ्रम ही है | नानात्व का भ्रम हो जाने पर ही "यह गुण है" और "यह दोष है" इस प्रकार की कल्पना करी जाती है | जिसकी बुद्धि में गुण और दोष का भेद बैठ गया हो, दृणमूल हो गया है, उसी के लिए कर्म, अकर्म और विकर्म रूप का प्रतिपादन हुआ है |</span></b><br /><b><span style="color: #444444;"><br /></span></b><b><span style="color: #444444;">जो पुरुष गुण और दोष बुद्धि से अतीत हो जाता है, वह बालक के समान निषिद्ध कर्मों से निवृत्त होता है ; परन्तु दोष बुद्धि से नहीं | वह विहित कर्मों का अनुष्ठान भी करता है, परन्तु गुण बुद्धि से नहीं |</span></b><br /><b><span style="color: #444444;"><br /></span></b><b><span style="color: #444444;">जिसने श्रुतियों के तात्पर्य का यथार्थ ज्ञान ही प्राप्त नहीं कर लिया, बल्कि उनका साक्षात्कार भी कर लिया है और इस प्रकार जो अटल निश्चय से संपन्न हो गया है, वह समस्त प्राणियों का हितैषी सुहृद होता है और उसकी साड़ी वृत्तियाँ सर्वथा शांत रहती हैं| वह समस्त प्रतीयमान विश्व को मेरा ही स्वरुप - आत्मस्वरूप देखता है; इसलिए उसे फिर कभी जन्म-मृत्यु के चक्र में नहीं पड़ना पड़ता |</span></b></div><b><span style="color: #444444;"><br /></span></b><br /><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #444444;">|| जय श्री कृष्ण ||</span></b></div><br /></div></div></div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-16286622287425927982011-06-22T13:09:00.000+05:302012-11-05T20:16:04.837+05:30परिस्थिति कैसी भी हो उसका सदुपयोग करें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="font-size: large;">असली नायक वही होगा जो समय का सदुपयोग करेगा. महाभारत युद्ध के असली नायक श्रीकृष्ण ही थे. उन्होंने गीता सुनाकर अपने ज्ञान का परिचय दिया और साबित किया की बिना ज्ञान के नायक नहीं बना जा सकता है. उन्होंने बताया की उनका ज्ञान गीता का ज्ञान है, सम्पूर्ण जीवन के लिए खरा ज्ञान है. पुरे युद्ध की योजना, क्रियान्वयन और परिणाम में गीता ही अपनाई गई. अर्जुन को निमित्त बनाकर श्रीकृष्ण ने पुरे मानव समाज के कल्याण की बात कही. गीता में यह व्यक्त हुआ है की कैसी भी परिस्थिति आये, उसका सदुपयोग करना है. १८ अध्याय में श्रीकृष्ण ने जीवन के हर क्षेत्र में उपयोगी सिद्धांतो की व्याख्या की है. युद्ध के मैदान से गीता ने निष्काम कर्मयोग का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत दिया है की "कर्म करो फल की चिंता ना करो" यही निष्काम कर्म है. यदि निष्कामता है तो सफल होने पर अहंकार नहीं आयेगा और असफल होने पर अवसाद(दुःख) नहीं होगा. निष्कामता का अर्थ है कर्म करते वक्त कर्ताभाव का अभाव. महाभारत में गीता की अपनी अलग चमक है. इसी प्रकार जीवन में 'ज्ञान' का अपना एक अलग महत्व है. श्रीकृष्ण ने पांडवों की हर संकट से रक्षा की और अपने ज्ञान के बल पर सत्य की विजय के पक्ष में अपनी भूमिका निभाई. कौरवों के पक्ष में एक से बढ़कर एक योद्धा और पराक्रमी थे जिसमे भीष्म सर्वश्रेष्ठ थे. कर्ण हो या द्रोण, इस बात के प्रति नतमस्तक थे की श्रीकृष्ण के ज्ञान के आगे वे कुछ भी नहीं है. युद्ध में शस्त्र ना उठाने का निर्णय श्रीकृष्ण ले ही चुके थे, अतः वीरता का प्रदर्शन का तो कोई अवसर था ही नहीं. ऐसे में श्रीकृष्ण का सारा पराक्रम उनके ज्ञान पर ही आधारित था और सबने उनके इसी बुद्धि-कौशल का लोहा माना. 'गीता' इसी का प्रमाण है. </span></div>
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Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-15648273391484552392011-06-22T13:08:00.000+05:302012-11-05T20:16:51.306+05:30दुर्गुणों के हमले में होश ही हमारा हथियार है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
युद्ध का नियम है कि जितना शत्रु को समझ सको समझ लो, बिना समझे आक्रमण मत करना, लेकिन शत्रु से ज्यादा समझ अपने शस्त्र कि रखना. जीवन में सबसे बड़ा और खतरनाक आक्रमण दुर्गुणों का है. इसके पास वासना जैसे शुक्ष्म हथियार होते है और भी कई शक्लों में अस्त्र-शस्त्र है दुर्गुणों के पास, लेकिन मनुष्य के पास इस आक्रमणसे अपनी सुरक्षा के लिए एक ही हथियार है और उसे कहा गया बुद्धि, भक्ति, प्रज्ञा या सामान्य भाषा में होश का हथियार. दुर्गुणों के हमले में आपका होश ही आपका हथियार है. दुर्गुणों के आक्रमण में भागना नहीं चाहिए. जीवन में काम, क्रोध, लोभ, अहंकार आएंगे ही सही, इनके दमन के चक्कर में मत पड़िए. आप जितना दबायेंगे, ये उतनी ही तेजी से आपको पलटकर धक्का देंगे. सीधा आमना-सामना परेशानी बड़ा देगा. इनसे सीधे मत लड़िये, बस इन पर ध्यान दीजिये. होश यानि आपका जग जाना और दुर्गुणों के मच्छर मूर्छा तथा निद्रा के जल में पनपते है, सुरक्षित रहते है. आप जागे, तो इन्हें जाना ही पड़ेगा, बिल्कुल ऐसे जैसे प्रकाश आने पर अंधकार को प्रस्थान करना ही पड़ता है. रोशनी, अँधेरे को खा जाती है. होश दुर्गुणों को पचा जाता है. होश कि अपनी ऐसी गर्माहट होती है जिसमे वासना कि बर्फ पिघल जाती है. यहाँ दुर्गुणों के सामने 'भागना मत' बड़ी महत्वपूर्ण बात है, वैसे ही रुक जाना.जैसे अर्जुन को श्री कृष्णा ने रोका था कुरुक्षेत्र में. श्रीकृष्णा आज भी हमारे साथ है, बस हमें अर्जुन बनने कि तैयारी रखनी है. श्रीकृष्णा हमेशा कहते थे इसकी शुरुआत तब ही होगी |</div>
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Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-21683279040842740942011-06-22T13:07:00.000+05:302012-11-05T20:17:16.586+05:30देना होगा जर्रे-जर्रे का हिसाब खुदा के सामने<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
वैराग्य किसी के भी भीतर उतरे, होता उसका अपना शाही अंदाज़ है. संत-फकीरों को आज भी इसलिए याद किया जाता है कि उनके भीतर उतरे वैराग्य ने उनकी जीवनशैली को एक अलग ही ढंग दे दिया था. मुस्लिम संत हातमअसम चीजों को बड़े मजेदार ढंग से समझाया करते थे. एक बार उन्होंने स्वर्ग और नर्क को लेकर उन्होंने बड़ी गहरी और रोचक व्याख्या की . वे किसी कि दावत में गए हुए थे, दावत तीन शर्तों पर मंजूर कि गई थी. पहली- जहाँ चाहूँगा बेठुंगा और जब बेठने का मौका आया तो वे जूते-चप्पलों के पास जाकर बेठ गए. दूसरी शर्त थी जितना चाहूँगा, उतना ही खाऊंगा और बहुत गुजारिश के बाद भी उन्होंने दो ही रोटियां खाई. उनकी तीसरी शर्त थी जो में कहूँगा, वैसा ही करना होगा और उन्होंने एक तवा मंगवाया और वे उस गरम तवे पर खड़े हो गए. आसमान कि तरफ देखकर बोले- मैंने दो रोटियां खाई है. फिर तवे पर से उतरे और वहां मौजूद लोगों से कहा- यदि तुम्हे इस बात का यकीन है कि क़यामत में जर्रे-जर्रे का हिसाब देना होता है तो इस तवे पर खड़े हो जाओ. लोगों ने कहा- हमें यकीन तो है लेकिन हम इस तवे पर खड़े नहीं हो सकते. हातमअसम बोले- जब आप इस तवे पर खड़े होकर अपने गुजारे हुए एक दिन का हिसाब नहीं दे सकते तो क़यामत के दिन उस जमीन पर खड़े होकर, जहाँ केवल आग ही आग होगी, सारी जिंदगी का हिसाब कैसे दोगे. यहाँ फ़कीर ने समझाया है कि जो भी इस जिंदगी में कर रहे हो, ऊपर कोई इसका हिसाब रख रहा है. इसलिए अपने जमीर को साफ़ रखो क्योंकि जबाब एक दिन देना ही है.</div>
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Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-68597554527388078432011-06-22T13:06:00.000+05:302012-11-05T20:20:10.516+05:30सफलता और जीत के बारीक फर्क को समझा जाये<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<b>आज जितनी भी शिक्षा, ज्ञान, जानकारियां दी जा रही है, उसमे यह शपथ के रूप में बताया जा रहा है, कि हर काम में और हर हाल में सफल होना ही है चाहे कुछ भी हो जाये. असफल लोग जितनी हताशा और परेशानी में होते है, सफल लोग उससे भी कहीं ज्यादा तनाव और परेशानी में होते है. सफल हो जाये और फिर लगातार सफल बने रहे, यह इरादा ही एक दिन दुराग्रह में बदल जाता है और यह सफलता ही एक दिन नशे का रूप ले लेती है और हर बार सफल होने कि इच्छा हमेशा जीत कि आकांक्षा में बदल जाती है. सफलता और जीत के इस बारीक़ से फर्क को समझ लिया जाये तो यह हमारे जीवन के लिए बहुत लाभदायक होगा. सफलता में स्वयं के हित के साथ ही दूसरों के हित कि कामना भी बनी रहती है. सफल लोग अपनी सफलता में दूसरों का नुकसान नहीं चाहते है, किन्तु जीत तो पराजय के बिना हासिल ही नहीं होती है. दूसरों को पराजित करने में जाने-अनजाने हम कब इर्ष्या, द्वेष, षड़यंत्र का शिकार हो जाते है पता ही नहीं चलता है. जहाँ जीत एक कालकोठरी कि तरह और सफलता खुले कारगर कि तरह है. दुनिया में दो तरह कि जेल होती है. पहली, वो जो दूसरों के लिए बनाई गई है और दूसरी वह जो हमने खुद अपने लिए बनाई है. जो लोग धर्म को नहीं मानते है वे लोग हमेशा दूसरों को हराने के चक्कर में रहते है, जीत उनके लिए नशा बन जाती है, ऐसे लोग जीत ही नहीं हासिल करते, बल्कि साथ ही बहुत सारी अशांति भी प्राप्त कर लेते है. जो लोग धार्मिक होते है, वे लोग जीत कि जगह सफलता पर टिके रहते है, लेकिन पूर्ण शांति से ऐसे लोग भी वंचित रह जाते है. इन दोनों से ऊँची स्थिति है आध्यात्मिक होने की है क्यूंकि अध्यात्मिक व्यक्ति सफलता-असफलता, सुख-दुःख, लाभ-हानि को सामान भाव से लेते है इसलिए अध्यात्मिक लोग कभी भी असफल और दुखी नहीं होते है. इसलिए कर्म और उसके परिणाम को अध्यात्मिक नज़रिए से लिया जाना चाहिए, ना कि केवल सांसारिक नज़रिए लिया जाना चाहिए. आध्यात्म एक ऐसी शक्ति है जिसके सहारे हम सारी हताशा, तनाव और परेशनियों से मुक्ति पा सकते है. आध्यात्म हमे परमात्मा(भागवत गीता) के बताये हुए मार्ग पर ले जाता है और सिर्फ परमात्मा ही हमें सारी हताशा, तनाव और परेशनियों से मुक्ति दिलाने के लिए पर्याप्त है |</b></div>
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Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-25877916237092004652011-06-22T13:05:00.001+05:302012-11-05T20:20:39.642+05:30परमात्मा को पाने की पुकार बन जाता है जप<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">शरीर सद्कर्मो और मन सद्विचारों से संवरेगा. सद्विचार संवरते है सिमरन से, सिमरन के लिए शब्द-नाम की ताकत चाहिए. नाम महिमा के लिए गुरुनानक देव ने कहा है 'शब्दे धरती, शब्द अकास, शब्द-शब्द भया परगास.सगळी सृस्ट शब्द के पीछे, नानक शब्द घटे घट आछे.' इस शब्द ने धरती, सूर्य, चंद्रमा सारी दुनिया पैदा की है. यही शब्द सबके भीतर अपनी धुनकारें दे रहा है. इस नाम की खोज की जाये जो सबके भीतर है. सभी संत-फकीरों ने अध्यात्म को समझने के लिए अपने-अपने शब्द दिए है जो बाद में नाम-वंदना बन गए. गुरुनानक साहिब ने इसे गुरुबानी, सचिवाने, अकथ-कथ, हुकुम, हरी कीर्तन कहा है. ऋषि मुनियों ने इसे कभी आकाशवाणी कहा तो कभी रामधुन. चीनी गुरुओं ने ताओ, मुस्लिम फकीरों ने कलमा बताया. ईसा मसीह इसे लोगास बता गए.लेकिन फकीरों ने जो शब्द बताया है, इसे हम केवल ऐसे शब्दों से ना जोड़े ले जो जबान से निकलते है.हमारे शरीर के भीतर नाम अपनी एक अलग अनुभूति रखते है. जब हम ध्यान करते है तो ये नाम या गुरुमंत्र केवल बोलने के शब्द बनकर नहीं बल्कि पुरे ध्यान में अपना नांद देते है, गूँज ध्वनि देते है. यह भीतरी अनुगूंज हमें गहरे ध्यान में उतरती है. कई लोगों को तो गुरुनानक साहिब के वाहेगुरु संबोधन ने भी ध्यान में उतार दिया. यह नाम जप एक पुकार बन जाता है. परमात्मा को पाने के लिए हम जब आतुर होते है और उस आतुरता में जो शब्द उच्चारित होते है, वे नाम जप बन जाते है. निरंतरता बनाये रखिये, एक दिन परमात्मा आपको मिल ही जायेगा |</span></div>
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Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1353732891580374893.post-22985493547616369012011-06-22T13:05:00.000+05:302012-11-05T20:21:12.747+05:30सुरक्षा का भाव उपजता परमात्मा पर भरोसे से<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h3 class="post-title entry-title">
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<strong><span style="font-family: Verdana, sans-serif;">भक्त भगवान पर भरोसा करते है और सुरक्षा कि गारंटी भी चाहते है. हम जितना संसार से अपने आपको सुरक्षित रखना चाहेंगे, हमें परमात्मा के प्रति विश्वाश पैदा करने में उतनी ही परेशानी आयेगी. संसार में रहकर हम प्रयास करते है कि सुरक्षा का एक घेरा हमारे आसपास बन जाये. हमारे लिए कभी-कभी परमात्मा भी सुरक्षा करने कि वस्तु बन जाता है, जबकि होना चाहिए विश्वास. आप परमात्मा पर भरोसा रखिये, उसके बाद भूल जाईये कि आप सुरक्षित है या असुरक्षित, बाकि काम ईश्वर पर छोड़ दीजिये. भगवान हमेशा भक्तों से कहते है, तुम लोग सुखद सम्भावना के पात्र हो. इसलिए असंतोष और असमंजस से बाहर निकलो. भगवान तीन तरह के भक्तों को सावधान करते हुए कहते है, मैं उन लोगों से नाराज रहता हूँ जो लोग अन्याय करते है, जो सीधे-सीधे अन्याय सहते है और तीसरे वे लोग जो इन दोनों स्थितियों को देखते है. इस मामले में मुझे मूकदर्शक और गैर-जिम्मेदार लोग पसंद नहीं है. मैं अपने भक्तों का अंतिम समय तक और पुनः आरम्भ तक साथ देता हूँ. मेरे पास सुधार कि सम्भावना के अनेक अवसर है जो मैं अपने भक्तों के लिए सुरक्षित रखता हूँ. फिर भी भक्त है कि वे मुझे ही धोखा देने कि कोशिश करते है. हम भक्तों को यह समझना होगा कि अभी तक वह धूल नहीं बनी जो भगवन कि आँखों में झोंकी जा सके. भवन में रहो, भवन को अपने भीतर मत रखो. धन आपके खाते में रहे, दिल में न हो. ह्रदय में भगवान के प्रति विश्वास हो तो देह को भले ही संसार में उतार दें, फिर खतरा नहीं रहेगा |</span></strong></div>
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