गायत्री प्रणवान्विता

तत्त्वदर्शी ऋषियों ने कहा है दुर्लभा सर्वमंत्रेषु गायत्री प्रणवान्विता अर्थात्- प्रणव (ॐ) से युक्त गायत्री सभी मन्त्रों में दुर्लभ है। इसीलिए त्रिपदा गायत्री को उसके शीर्ष पद के साथ ही जपने का विधान इस विज्ञान विशेषज्ञों ने बनाया है। परब्रह्म निराकार, अव्यक्त है। अपनी जिस अलौकिक शक्ति से वह स्वयं को विराट रूप में व्यक्त करता है, वह गायत्री है। इसी शक्ति के सहारे जीव मायाग्रस्त होकर विचरण करता है और इसी के सहारे माया से मुक्त होकर पुनः परमात्मा तक पहुँचता है। गायत्री मंत्र के शीर्ष पद और तीनों चरणों के निर्देशों का अनुगमन- अनुपालन करता हुआ साधक सुखी, समुन्नत जीवन जीता हुआ इष्ट लक्ष्य तक पहुँच सकता है। 

शीर्ष :- गायत्री मंत्र का शीर्ष है ॐ भूर्भुवः स्व। ॐ को अक्षरब्रह्म, परब्रह्म- परमात्मा का पर्याय कहा गया है। सूत्र है, तत्सवाचकः प्रणवः अर्थात् ॐ परमात्मा का बोधक है। सृष्टि विकास के क्रम में कहा गया है कि ओंकार (ॐ) के रूप में ब्रह्म प्रकट हुआ, उससे तीन व्याहृतियाँ (भूः भुवः स्वः) प्रकट हुईं। 

शीर्ष पद का अर्थ हुआ कि वह ॐ रूप परमात्मा तीनों लोकों (भूः, भुवः, स्वः) में व्याप्त है। वह प्राणस्वरूप, दुःखनाशक एवं सुखस्वरूप है। 

तीन व्याहृतियाँ ..... क्रमशः गायत्री मंत्र के तीन चरण प्रकट हुए। युगऋषि ने आत्मिक प्रगति के लिए जो तीन क्रम अपनाने को कहे हैं (ईश उपासना, जीवन साधना और लोक आराधना) उनका अनुशासन भी क्रमशः गायत्री के तीन चरणों से प्राप्त होता है। 

प्रथम चरण- तत्सवितुर्वरेण्यं :- तत् वह परमात्मा रूपी पुरुष के भेद से परे है; वह सविता (सबका उत्पादक) है, इसलिए सभी के लिए वरण करने योग्य है। माँ के गर्भ में शिशु पलता है तो माँ की प्राणऊर्जा की विभिन्न धाराओं से ही उसके सारे अंग- अवयवों का पोषण और विकास होता है। यही नहीं, माँ के भावों और विचारों के अनुरूप ही बालक के भाव- विचार बनते हैं। पैदा हो जाने पर भी माँ का दूध ही उसके लिए सबसे उपयुक्त आहार सिद्ध होता है। 
 
दूसरा चरण- भर्गो देवस्य धीमहि :- उस देव (परब्रह्म- परमात्मा) का भर्ग (दिव्य तेज) जो हमें सहज प्राप्त है, उसे हमें अपने अंदर धारण करना है, उसे आत्मसात करना है। माँ के गर्भ में बालक को जो ऊर्जा माँ से प्राप्त होती है, उसे वह अपने प्रत्येक कोश में, कण- कण में धारण करता है, तभी उसके कोशों, अंग- अवयवों का पोषण और विकास होता है। गोद में माँ के दूध को भी बालक पचाकर अपने शरीर में धारण करता है, तभी वह विकसित होता और निरोग रहता है। 
 
तीसरा चरण- धियो यो नः प्रचोदयात् - वह परमात्मा जिसे हमने अपने अंदर धारण कर लिया है, वह हमारी बुद्धि को बल पूर्वक सही दिशा में लगा दें। हमारी बुद्धि सहज रूप में सांसारिक अनगढ़ कामनाओं से प्रेरित होती रहती है। उसी दिशा में उसके प्रयास होते हैं और जीवन का उपयोग अनगढ़ गतिविधियों में होने लगता है। परमात्मा ने मनुष्य को यह स्वतंत्रता दे रखी है कि वह जहाँ से चाहे, वहाँ से प्रेरणाएँ प्राप्त कर ले। अपने द्वारा दी गई इस स्वतंत्रता का वह स्वयं भी उल्लंघन नहीं करता। जब साधक स्वयं उसे वरण और धारण करके उससे जीवन संचालन की भावभरी प्रार्थना करता है, तभी वह उस भूमिका को स्वीकार करता है। अर्जुन ने श्रीकृष्ण का वरण किया, उसे अपने जीवनरथ पर बिठाला, धारण किया और उनकी आज्ञा पालन का वचन दिया, तभी कृष्ण ने वह भूमिका सँभाली। 

जीवन तो ईश्वर का बनाया हुआ साधन धाम और मोक्ष का द्वार है। अनगढ़ संचालन के कारण ही वह दीनता और भव बंधन का रूप ले लेता है। जब प्रभु स्वयं उसका संचालन करते हैं, तब भटकावों की गुंजाइश ही नहीं रह जाती। तब वह शरीर रहते अभ्युदय और शरीर छूटने के बाद निःश्रेयस- परमगति का अधिकारी बन जाता है। 
गायत्री के तीसरे चरण की सुसंगति युगऋषि द्वारा सुझाये गये तीसरे अनिवार्य क्रम आराधना से बैठती है। जब दिव्य चेतना हमारे जीवन के क्रिया- कलापों का संचालन करती है तो वह स्वभावतः लोक कल्याण- लोकहित के कार्यों में ही प्रदत्त होती है। गायत्री मंत्र का तीसरा चरण सधते ही साधक का हर कार्य प्रभु की प्रसन्नता के लिए होने लगता है। जीवन सम्पदा के कण- कण का और समय के क्षण- क्षण का नियोजन प्रभु समर्पित कर्म में होने लगता है। उसका प्रत्येक कर्म ईश्वर की प्रसन्नता का आधार- आराधना बन जाता है। 

गायत्री मंत्र की सहज स्वीकारोक्ति अनेक धर्म- संप्रदायों में है। सनातनी और आर्य समाजी तो इसे सर्वश्रेष्ठ मानते ही हैं। वैष्णव सम्प्रदाय में भी अष्टाक्षरी मंत्र (श्रीकृष्णं शरणं मम) के साथ गायत्री मंत्र जप करने की बात कही गई है। स्वामीनारायण सम्प्रदाय की मार्गदर्शिका ‘शिक्षा पत्री’ में भी गायत्री महामंत्र का अनुमोदन किया गया है। संत कबीर ने ‘बीजक’ में परब्रह्म की व्यक्त शक्तिधारा को गायत्री कहा है। सत्साईं बाबा ने भी कहा है कि गायत्री मंत्र इतना प्रभावशाली हो गया है कि किसी को उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उन्होंने स्वयं गायत्री मंत्र का उच्चारण करके भक्तों से उसे जपने की अपील की है। 

इस्लाम में गायत्री मंत्र जैसा ही महत्त्व सूरह फातेह को दिया गया है। अभी हिंदी और उर्दू में प्रकाशित पुस्तिका युग परिवर्तन इस्लामी दृष्टिकोण में सूरह फातेहा के तीन चरणों को गायत्री मंत्र की तरह जपने का प्रस्ताव किया गया है। उसे विचारशील मुसलमानों ने स्वीकार भी किया है। जरूरत यही है कि कर्मकाण्ड के कलेवर के साथ गायत्री विद्या के प्राण को भी जाग्रत् किया जाये। उपासना, साधना तथा आराधना के स्वरूप को और उन्हें जीवन में गतिशील बनाने के सूत्रों को जन- जन तक पहुँचाया जाये तो उज्ज्वल भविष्य में सब की भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है। 

गायत्री मंत्र का भाव यदि किसी भी भाषा में दुहराया जाये, तो वह भी मंत्र की तरह ही काम करता है। थियोसॉफिकल सोसाइटी की पुस्तक भारत समाज पूजा की भूमिका में दिव्य दृष्टि सम्पन्न पादरी लैडविटर ने उक्त तथ्य को स्पष्ट किया है। 

गायत्री जयंती पर्व गायत्री महाविद्या के अवतरण का पर्व है। इसी दिन सभी नैष्ठिक गायत्री साधकों को प्रयास करना चाहिए कि - गायत्री मंत्र जप आदि कर्मकाण्ड कलेवर को अपनायें, किंतु उसमें गायत्री के प्राण का, गायत्री महाविद्या का भी समावेश करें।